अष्टाङ्ग-इदय, अष्टाङ्ग आयुर्वेद का सारभूत एक आधिकारिक एवं महत्त्वपूर्ण प्रत्य है। इस ग्रन्थ ने न केवल भारत वर्ष के चिकित्सा क्षेत्र के व्यक्तियों को अपितु भारत के पड़ोसी देशों यथा श्रीलङ्का, अरब, फारस, तिब्बत तथा जर्मनी आदि देशों के लोगों का भी ध्यान आकृष्ट किया है। इसकी लोकप्रियता इस बात से प्रमाणित होती है कि बहुत-से विद्वानों ने इस ग्रन्थ पर अपनी टीकायें लिखी हैं तथा अन्य देशों के विद्वानों ने भी इसको प्रशंसनीय रचना माना है। प्रन्य के रचना-कौशल, अर्थस्पष्टतायुक्त संक्षेपीकरण, चिकिरपा के व्यवहार्थ सिद्धान्तों का प्रतिपादन, विषयों का क्रमिक समावेशीकरण, सिद्धान्तों का स्फुटीकरण तथा अन्य कई गुणों के कारण यह ग्रन्थ बृहत्त्रयी में समुचित स्थान प्राप्त किया है। यह आयुर्वेद महोदधि का संक्षिप्त मूर्तिमान रूप है, जो कि समान रूप से आयुर्वेद के विद्यार्थियों, विद्वानों तथा चिकित्सकों की अभीष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। ग्रन्थ का स्वरूप एवं समाविष्ट विषय-
अष्टाङ्ग-हृदय छः स्थानों (परिच्छेदों) में विभक्त ग्रन्थ है। प्रत्येक स्थान भित्र-भित्र संख्या वाले अध्यायों से समावेशित है। सम्पूर्ण अध्याओं की संख्या १२० है। सम्पूर्ण ग्रन्य पद्यात्मक शैली में रचित है। वर्तमान उपलब्ध संस्करण में कुल ७४७१ श्लोक हैं। इनके अतिरिक्त ३३ श्लोक ऐसे हैं, जिन पर आचार्य अरुणदत्त द्वारा टीका नहीं लिखी गई है। अतः प्रतीत होता है इन श्लोकों को बाद में प्रक्षिप्त कर दिया गया है। प्रन्थ में २४० छोटी-छोटी गद्यात्मक पंक्तियाँ हैं, जो कि प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में दो-दो की संख्या में उल्लिखित हैं।
ग्रन्थ में निम्नांकित स्थान एवं उनमें समाविष्ट विषय है।
(१) सूत्र स्थान-प्रन्थ के प्रथम स्थान में ३० अध्याय है, जिनमें आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों, स्वास्थ्य के सिद्धान्त, रोगों का प्रतिकार, आहार द्रव्यों तथा औषधियों का गुण, शरीर-दोषों की प्रकृति तथा विकृति, विविध प्रकार के रोग एवं उनकी चिकिला-पद्धति आदि विषयों का विवरण उपन्यस्त किया गया है।
(२) शरीर स्थान द्वितीय स्थान में अध्याय है। जिनमें गर्भविज्ञान, शरीर रचना, शरीर किया, शरीर (देह) प्रकृति, मानस प्रकृति, मर्मशारीर, शुभ एवं अशुभ स्वप्नों एवं लक्षणों का प्रादुर्भाव, अरिष्ट ज्ञान एवं आसत्र मृत्यु के लक्षण आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है।
(३) निदान स्थान-तृतीय स्थान में १६ अध्याय है। इसमें प्रमुख रोगों का निदान, पूर्वरूप, रूप, सम्प्राप्ति एवं साध्यासाध्यता का विवरण व्याख्यायित किया गया है।
(४) चिकित्सा स्थान-चतुर्थ स्थान में २२ अध्याय हैं। इनमें सभी प्रमुख रोगों (शारीरिक अवयवों) के उपचार का विशद विवरण, उपयोगी उपचार के साधन, विभिन्न रोगों का पथ्यापथ्य विवेचन, रोगों के लिए उपयुक्त आहार तथा रोगी के प्रति सावधानी रखना आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है।
(५) कल्प स्थान-इस स्थान में ६ अध्याय है, जिनमें विभिन्न औषधियों की निर्माण विधि, संशोधन-औषधियों का प्रयोग, संशोधन कर्मजन्य उपद्रवों का उपचार तथा औषधि-निर्माण के सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है।
(६) उत्तर स्थान इस अन्तिम व छठे स्थान में आयुर्वेद के कार्यचिकित्सा अंग को छोड़कर अन्य सात अंगों के विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इस स्थान में कुल ४० अध्याय है, जो कि निम्नांकित विषयों के प्रतिपादन से सम्बन्धित है। यथा-३०, ध्याय बाल चिकित्सा, ४ अध्याय ग्रह चिकित्सा और १७ अध्याय में ऊर्ध्वाङ्ग रोगों की चिकित्सा के विषय उपन्यस्त किये गये हैं। ऊर्ध्वाङ्ग चिकित्सा को पुनः ५ अवयवों के चिकित्सा में तत्सम्बन्धित विषयों का समावेश किया गया है। इनमें ९ अध्याय नेत्र रोग चिकित्सा के, र अध्याय मुखरोग चिकित्सा, २ अध्याय नासागत रोग चिकित्सा और २ अध्याय शिरोरोग
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