अष्टांगसंग्रहकी विशेषता “न मात्रामात्रमपयत्र किञ्चिदागम्वर्जितम्। तेऽर्थः स पृष्ठशशश्च लघुाय कामोऽन्यथा”॥
इस अष्टांगसंग्रहमें एफभी मात्रा लागम के विपरीत नहीं है। येही तो अर्थ है, और वह ही ग्रन्थरचना है; केवल संक्षेपके लिये कम बदल दिया है। क्योंकि
“युगानुरुप्रसन्दर्भों विभागेन करिष्यते”। युगके अनुसार सन्दर्भ विभाग रूपसे किया गया।
इस उपयोगी अन्धके अनुवादकी पृष्ठभूमिसे पाठकोंको परिचित करना आवश्यक है। क्योंकि जिस पुस्तकका प्रचार कम भौर जिसके प्रकाशनमें अर्थ समस्या, फिर उसके लिये क्यों अनुवादकी प्रवृति हुई। यह एक प्रक्ष है।
गुरुकुल कांगड़ीमें पड़ते समय परक और सुश्रुतका हिन्दी अनुवाद करनेकी इच्छा हुई। उसी इच्छासे सन् तीसके कगभग चरकका अनुवाद आरम्भ किया और पांच छः साल में समाप्तमी कर दिया। इसके पीछे सुधुतका अनुबाद प्रारम्म किया । शारीरस्थान तक समाप्त किया। सुयुतका अनुवादनी चरक संहिताके प्रकाशकने ही छापनेका वचन दिया था । इसकेलिये उन्होंने विज्ञापनभी दिए। था। परन्तु पीछेसे उनका विचार बदल गया। इसी बीचमें सुश्रुतके एक दो अनुवाद
निकल आये। इसलिये विचार रुक गया। चरक संहिताका अनुवाद करते समय श्री योगीन्द्रनाथसेनजी एम. ए. की चरकोपस्कार ठीकाका उपयोग हुना था। उसमें स्थान स्थानपर दुरुह पूर्व सन्दिग्ध विषयको स्पष्ट करनेकेलिये अष्टांगसंग्रहसेही सहायता ली गई थी। बसः इसी कारणसे इस ग्रन्थकी महत्ताका विचार जाया। जिससे इसके अनुवादमें इच्छा हुई। वास्तवमें संग्रह चरक और सुधुतको स्पष्ट करनेका साधन है। इसीले महाराज श्री यादवजी विकमजी आचार्य कहा करते हैं कि ग्रन्धकी टीका दूसरा ग्रन्थही है। इसलिये अन्धको समझने में तद्विषयक दूसरे अम्बसे मदद को । इसीलिये चरकको उपस्कृत
करनेकेलिये श्री सेनजीने संग्रहका स्थान स्थानपर उपयोग किया । बस, इसी कारणसे इसका
अनुवाद सन् इकतालीसमें प्रारम्भ किया। उस समय इस अनुवादके केवल तीन अध्या यही लिखे गये थे। फिर सन् चवालीस तक इसने एकसी नक्षर नहीं जुड़ा। सन् पैतालीस में जामनगर आनेपर इसे फिरसे हाथमें उठाया। और फिर रात दिन लगकर मशीनकी भांति जैसे-तैसे इसे समाप्त किया ।
यह सब दिलसे नाहीं किया, परन्तु परिस्थितियोंसे विवश होकर करना पड़ा। क्योंकि अनुवादकेलिये संग्रहकी इन्तु लिखित शशिलेखा नामक टीकाकी एक ही पुस्तक संस्थामें थी। वहमी संस्थाकी अपनी नहीं थी। अपितु माननीय डॉ. प्राणजीवन महेताजीने एक वैद्यसे उधार मांगीहुई थी। दिनमें संस्थाके अन्दर उसकी प्रतिलिपी होतीथी । रातको तथा
प्रातः मुझे काम करना होता था। जामनगरकी रातमें मच्छरोंका कितना त्रास है, यह काम करनेवाला जानता है। मच्छरोंले बचनेकेलिये हाथ-पैर और सुखपर मिट्टीका तेल लगाकर में लिखता था। केवल इसीलिये कि समयका उपयोग अधिकसे अधिक करूं । पुस्तकका तकाजा रहा और अन्तमें अधूरे कार्यमें ही पुस्तक चलीभी गई।
अब कैसे काम हो; यह समस्या आई। फिर नासिककी छपी मूल प्रतिसे काम करनेका विचार किया, परन्तु उसमें
विभाग नहीं था । इसकेलिये अष्टांगहृदयकी हेमाद्रि टीका आयुर्वेदसायनसे कुछ काम लिया। परन्तु वहनी पूरी नहीं थी । जामनगर में तथा अपनी पहुंचके अन्दर मैंने सब प्रयत्त किये, कि अनुवादकेलिये इन्दुकी कोई पुस्तक मिल जाय परन्तु मैं प्राप्त नहीं कर सका। इसलिये जिन साधनोंका उपयोग में कर सका, उनका उपयोग करके मैंने इसे पूरा किया। और उसीका परिणाम यह रहा कि मूल और अनुवादमें बहुत स्थानोंपर अन्तर मिलता है।
क्योंकि अनुवादमें जो कठिनाई थी, बही प्रकाशनमें हुई। अनुवादमें कुछ भाग इन्दुटीकावाली पुखकका है, कुछ आग पूनासे प्रकाशित श्रीरामचन्द्रशास्त्रीजीकी पुस्तकके उपरसे है। कुछ हेमाद्रिकी आयुर्वेद रसायन टीकाके आधारपर है। भौर कुछ भाग नासिककी मूल पुस्तककी सहायतासे हुजा है। इसप्रकार अनुवाद तो चार पुस्तकोंकि उपर है, और मूछ पाठ केवल नासिककी मूल पुस्तकसे लिया गया। इसलिये पाठभेदके सिवाय सूत्रके विभागमेंभी कहीं कहीं अन्तर जागया है। इस सबमें कुछ समानता बासके, इसलिये एक संशोधन पत्र साथमें दिया है। सम्भवतः इसमेंभी भूले रह गई हों- परन्तु आगले संस्करणोंमें इनको निकलानेका यत्न हो जायेगा। क्योंकि ये बातें स्वयं ही प्रकाशक और अनुवादक दोनोंकी
बांसोंले जोशक नहीं है।
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