कोई भी भाष्यकार अथवा व्याख्याकार अपने पूर्ववर्ती भाष्यों और व्याख्याओं को ध्यान में रखकर ही उससे अधिक आगे अथवा न्यूनताओं को पूरा करने के उद्देश्य से भाष्य या व्याख्या लिखने में प्रवृत्त होता है। वेद-भाष्यों एवं व्याख्याओं के सन्दर्भ में भी यह बात उचित तथा सटीक दिखायी देती है ।
उन्नीसवीं शताब्दी में वेद-भाष्यों के क्रम में एक बड़ा उल्लेखनीय परिवर्तन आया । अभी तक वेद – भाष्य संस्कृत में ही विद्वानों, ऋषियों, तत्त्वद्रष्टा मनीषियों के उपलब्ध हुए थे परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों का भाष्य संस्कृत में ही न करके जन-मन की भाषा, भारत की भाषा, हिन्दी में भी व्याख्या करके वेदों को सर्वजनसुलभ कराकर नूतन एवं क्रान्तिकारी वेद-व्याख्या का पथ प्रशस्त किया है ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेद – भाष्य अनेक नवीनताओं और विशेषताओं से संयुक्त यदि हो पाया तो इसके पीछे भी पूर्ववर्त्ती भाष्यकार ही हैं। पूर्ववर्ती स्कन्द स्वामी, उद्गीथ, वेंकट- माधव, आनन्दतीर्थ, आत्मानन्द, आचार्य सायण, उव्वट, महीधर आदि विद्वानों के स्कन्धों पर आरोहण करके अथवा बैठकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने दूर तक देखा है तथा दूरदृष्टि एवं सूक्ष्मदृष्टि पायी है तब यह भाष्य अनेक नवीनताओं और विशेषताओं से समन्वित हो सका है । यह वैसे ही है जैसे एक पुत्र अपने पिता के कन्धों पर बैठकर इस अद्भुत और चमत्कारिक जगत् के दर्शन करता है तथा रोमांचित एवं प्रहर्षित होता है वही पुत्र आगे चलकर एक वैज्ञानिक, इञ्जीनियर, डॉक्टर, उत्तम शिल्पकार आदि बनता है तो इसमें पिता का भी योगदान रहता ही है । अनेक बार हम उस योगदान की चर्चा न करके कहीं न कहीं चूक कर ही जाते हैं जिससे हमें बचना चाहिये । यह हमारे लिए बहुत गौरव
का विषय है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने वेद-भाष्य और व्याख्या से परवर्ती भाष्यकारों अथवा व्याख्याकारों को वेदार्थ की अभिनव दृष्टि से अभिषिक्त किया है ।
प्रकृत शोध-लेख के शीर्षक से सम्बद्ध सामवेद के प्राचीन तीन भाष्यकार आचार्य माधव, भरत स्वामी और आचार्य सायण ही उपलब्ध होते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेद-भाष्य सुलभ होने के पश्चात् वेदार्थ के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति में निरन्तर प्रवृद्धि हुयी है एवं होती जा रही है। यही कारण है कि सामवेद के जहाँ प्राचीन तीन भाष्यकारों के ही नाम सुलभ होते हैं वहीं अर्वाचीन भाष्यकारों और व्याख्याकारों के रूप में लगभग दश (१०) की संख्या विद्यमान है । सामवेद के आर्य भाषा-भाष्यों में पं० जयदेव शर्मा विद्यालंकार, स्वामी ब्रह्ममुनि, पं० विश्वनाथ विद्यालंकार, पं० श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर, पं० वैद्यनाथ शास्त्री, पं० हरिशरण सिद्धान्तालंकार की व्याख्यायें उल्लेखनीय हैं । उक्त व्याख्याकारों से पूर्व पं० तुलसीराम स्वामी संस्कृत और हिन्दी दोनों में सामवेद का उत्कृष्ट भाष्य कर चुके थे। ‘सामसंस्कार भाष्य’ नाम से संस्कृत और हिन्दी में सामवेद का एक उत्तम अध्यात्म-भाष्य स्वामी भगवदाचार्य ने भी किया है। सामवेद संहिता की एक भूमिका सहित, सटिप्पण हिन्दी व्याख्या महामण्डेलश्वर स्वामी गंगेश्वरानन्द उदासीन के नाम से सद्गुरु गंगेश्वर – इण्डरनेशनल – वेद मिशन, बम्बई से दो भागों में प्रकाशित हुआ है। इसमें प्रत्येक मन्त्र के तीन-तीन अर्थ – किये गये हैं। प्रथम आचार्य सायण के अनुसार द्वितीय आत्मयाजी अर्थ तथा तृतीय पं० जयदेव विद्यालंकार की व्याख्या का ही समर्थन करता प्रतीत होता है। सामवेद का एक उल्लेखनीय अंग्रेजी भाषा में अनुवाद संस्कृत टिप्पणियों के साथ पं० धर्मदेव विद्यावाचस्पति विद्यामार्त्तण्ड द्वारा भी प्रणीत है।
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