महर्षि कृष्णद्वैपायनदेव भारतीय संस्कृति के महाआधारस्तंभ हैं। वैसे तो पूरा मेवात है कि प्रतिमान के होते हैं लेकिन वर्तमानपान यास्को ही प्रधानता सर्वपरिता है। इन महापुरुषों के वन-दर्शन-निहाय वर्णन परंपरा तो अद्वितीय है। व्यासदेव परमज्ञान की वारिधि है। व्यास याविभूति की तरंगे उत्तल रूप से परिवर्तनशील रहती है। परमात्म तत्व का निदर्शन ही यह जलनिधि है। इस वारिधि की अटल गहराई में विशाल उपाख्यान और उपदेश रूपी मूल्य र बिछो मिले हैं। ऐसे परम ज्ञानरूपव्यासदेव अपनी कृतित्व पुराणहित्य से सभी को पवित्र करें। पदा-
वाग्विस्तार यस्य बृहत्तरङ्गा, वेलातरत् वस्तुनि तत्यबोधः। रत्नानि तर्किप्रसररूपाः पुनात्यौ व्यासपयोनिधिर्न ।।
यह बृहदनारदीयपुराण व्यासदेव को ही कृति है। यही बृहद्वारदीय पुराण भाषानुवाद सहित दो खण्डों में प्रस्तुत है। अन्य इण्डियन कल्चर जिल्द ३ पृष्ठ ४७७-४७८ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि यह एक प्रमाणिक पुराण है। इसका वासी संस्करण मात्र ३८ अध्याय तथा ३६०० श्लोकों वाला बंगभाषा में मिलता है। लेकिन वेंकटेश्वर प्रेस का संस्करण दो भाग में है, जिसने द्वितीय भाग में ५५१३ श्लोक अंकित है। उपरोक्त जिल्द ३ में यह कहा गया है कि यह एक कट्टर वैष्णव सम्यदाय की कृति हैं। मत्स्यपुराण तथा अग्निपुराण में जिस नारदीय पुराण का वर्णन है, वह प्रस्तुत बृहदनारदीय से पूर्णतः भित्र प्रतीत होता है। विशेष बात तो यह है कि इस पुराण ने कहा है कि कोई विपत्ति काल में भी बौद्ध मन्दिर में प्रवेश न करें। अतः इसका दृष्टिकोण घोर बौद्ध विरोधी हैं। अपरार्क तथा स्मृतिवन्द्रिका में इसके कतिपय श्लोक उद्धृत किये गये हैं। जिसके कारण कहा गया है कि आज जो नारदीय पुराण प्राप्त है, उसका संग्रह १००० ईस्वी में किया गया, ऐसा पाठात्त्व विद्वानों से प्रभावित विद्वानों का कवन है. जिनकी दृष्टि में हमारी सभ्यता मात्र ५००० वर्ष पुरानी है। अतः कालनिर्णय कालश विद्वानों पर ही छोड़ना उचित मानता हूँ।
इस ग्रन्थ का प्रथम खण्ड अनेकांश में तान्त्रिक प्रयोगों पर भी आधारित है, तथापि उनमें जो मन्त्र संकेत दिये गये हैं. उनका मन्त्रोद्वार सम्भव ही नहीं हो सका। क्योंकि इस विषय के जो कोई गन्द
तन्वाभिधान आदि उपलब्ध हैं, उन कोष को सहायता से भी इन मन्त्र संकेतों को पहेली सुलझ ही नहीं सकी। हिन्दी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित इस ग्रन्थ के भाषानुवाद में भी मन्त्र संकेतों का कोई मन्त्रोद्वार अंकित नहीं है। अतः जब ऐसे विद्वद्वर्ग द्वारा यह पहेलो नहीं सुलझ सकी, तब मुझ जैसे अज्ञ व्यक्ति का इसमें असफल रह जाना कोई आह्वर्य का विषय नहीं है। अतः मैने अनुवाद काल में उन मन्त्र संकेतों का मात्र भाषानुवाद लिख दिया, क्योंकि गलत मन्त्रोद्धार करना पाठकों के प्रति एक वंचना ही होती तथा मुझे प्रायवित्त का भागी होना पड़ता। अतः इस अल्पज्ञता हेतु पाठक वर्ग क्षमा करें।
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