महर्षि वेदव्यास प्रणीत उपपुराण बृहद्धर्मपुराण को उपपुराणों में अन्यतम माना गया है। अठारह पुराणों के साथ ही अठारह उपपुराणों का भी प्रणयन महर्षि वेदव्यास ने किया था, यह कहा जाता है। पुराणों की विषयवस्तु जितनी अध्यात्मपरक, साधनापरक तथा तत्वपूर्ण है, उसी की झलक उपपुराणों में भी मिलती है। उपपुराण भी पुराणों की ही भावना से ओतप्रोत है। कुछ अंश में तो यह प्रतीत होता है कि उपपुराणों का उत्कर्ष पुराणों के ही समान है। बृहद्धर्मपुराण में पुराणों के आधार भूत सभी तत्वों तथा उपक्रमों का समावेश सम्यक् तथा संक्षिप्त रूप से किया गया है। इसकी विचित्रता यह है कि इस पुराण के समापन के साथ-साथ उसी समापन स्थल पर इसमें राजा वेण द्वारा प्रवर्तित किये गये जातिसंकर प्रसँग को भी जोड़ दिया गया है, जो अन्य पुराणों में नहीं मिलता। इस प्रसंग के अनुसार यह विदित होता है कि संकर जातियों की उत्पत्ति के मूल कारण राजा वेण थे। उन्होंने ही जातिगत संकर प्रथा का प्रारम्भ कराया था। तदनन्तर यह प्रसंग मिलता है कि राजा वेण के उत्तराधिकारी ने अपनी उदात्त वृत्ति का परिचय देते हुये, उस संकर जाति के लिये उपयुक्त सामाजिक व्यवस्था का विधान किया या तथा उनके जीविकार्थ कर्त्तव्य कर्म की भी व्यवस्था किया था। यह एक अलौकिक प्रसंग इस
उपपुराण में प्राप्त होता है। मुझे अनुवाद काल में इस पुराण की दो प्रति प्राप्त हो सकी थी। प्रथम थी बंगवासी प्रेस से मुद्रित प्राचीन बंगाक्षर प्रति, द्वितीय थी महामहोपाध्याय हरप्रसादशास्त्री द्वारा सम्पादित देवनागरी अक्षरों की प्रति। बंगवासी प्रेस की प्राचीन प्रति में
कतिपय अध्याय अधिक थे, जो हरप्रसादशास्त्री द्वारा सम्पादित प्रति में प्राप्त नहीं थे, जैसे कृष्णलीला प्रसंग तथा संकर जाति असंग। इसलिये मैंने अपने अनुवाद में उन अध्यायों को भी मूल के साथ संयोजित कर दिया। वे मुझे क्षेपकरूप अध्याय नहीं लगे। इसका कारण यह है कि हरप्रसादशास्त्री द्वारा सम्पादित प्रति में उपपुराण का समापन अचानक हो गया लगता है। कथावाचक का कथा कहकर प्रस्थान, श्रोतागण का स्वस्थान गमन आदि अंश उसमें न होने के कारण लगा कि इस प्रति में कहीं कुछ छूट गया है। मुझे बंगवासी प्रेस वाली प्रति में यह पुराण आद्यन्त प्रतीत हुई। उसे देखने से ज्ञात हुआ कि इसका अचानक समापन न होकर विधिवत् समापन हुआ है।
आजकल पाश्चात्य धारा का विशेष प्रभाव होने के कारण यह प्रथा हो गई है कि पुराण की विषयवस्तु, उसके संदेश तथा उसकी अन्तरात्मा के स्थान पर उसको ऐतिहासिकता, उसके सम्बन्ध में किस पाश्चात्य विद्वान् ने क्या कहा, उसका काल, उसकी भाषा आदि-आदि अनेक जटिलतायें खड़ी करके पुराणों के उपोद्घात के रूप में विशेष पाण्डित्य प्रदर्शन की परम्परा चल गयी है, जिससे किसी पुराण प्रेमी को कुछ लेना देना नहीं रहता। पुराणों का पाठक इस प्रवृत्ति का होता है कि उसे आम का रसास्वादन करना है, आम्रकुंज में कितने आम्रवृक्ष है, इसकी गणना से उसे क्या प्रयोजन ? साथ ही वह किस काल में लिखी गयी इत्यादि-इत्यादि विवेचना को जानने से पाठक का क्या पारलौकिक लाभ होगा? इन सबसे तो उसकी वृत्ति और भी बहिर्मुख होगी तथा मन में पुराण की प्रामाणिकता के प्रति संदेह बीज का अंकुरण होने लगेगा। प्राचीन टीकाकार इस तत्व को जानते थे तथा वे इन सब ग्राम्य चर्चा से पाठकों का मन. उद्वेलित न करके पूर्णतः पुराण की अन्तरात्मा की गहन गंभीरता में पाठक का प्रवेश कराते थे। अतः मैं इन सब प्रसंगों को परमतत्व लाभार्थ पुराण में व्यर्थ समझ कर पुराण में वर्णित विषयों के प्रति ही एकनिष्ठ रहते हुये तथा उसके सारतत्व को ही ग्रहण करते-करते अनुवाद कार्य में प्रवृत्त रह गया। “संत हंस गुण गहहिंपय” नीरक्षीर विवेकी हंस को तो उसका सारमात्र ही चाहिये। अतः “वारिविकार” रूप वितण्डा को विद्वानों के श्रमार्थ छोड़ता हूं।
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