‘आयुर्वेद’ अत्यन्त प्राचीन शास्त्र है। वस्तुतः प्राचीन आचार्यों ने इसे ‘शाश्वत’ कहा है और उसके लिए तीन अकाट्य युक्तियाँ दी हैं-‘सोऽयमायुर्वेदः शाश्वतो निर्दिश्यते, अनादित्वात्, स्वभावंसंसिद्धलक्षणात्वात्, भावस्वभावनित्यत्वात्।’ (च.सू. ३०) अर्थात् आयु और उसका वेद (ज्ञान) अनादि होने से आयुर्वेद अनादि है क्योंकि आत्मा के समान सृष्टि भी अनादि है। ‘आदिर्नास्त्यात्मनः क्षेत्रपारम्पर्यमनादिकम्’ (च.शा. १)। सृष्टि आरम्भ से ही जड़ और चेतन अथवा निरिन्द्रिय और सेन्द्रिय, दो प्रकार की रही है। इन दोनों का ही सम्बन्ध काल या समय से रहता है किन्तु चेतन पदार्थ में जब तक चेतना का अनुबन्ध रहता है उस अवधि को आयु कहते है। यथा
शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगो धारि जीवितम् । नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते ।। (च.सू. १) इस आयु सम्बन्धी प्रत्येक ज्ञेयविषयक ज्ञान (वेद) को आयुर्वेद कहते हैं। यथा
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम् । मानञ्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते ।। (च.सू. १)
मानव या प्राणिमात्र सृष्टि के आरम्भ से ही अपने हित या अहित का ज्ञान रखता आया है; अपनी आयु की वृद्धि और हानि करने वाली वस्तुओं का ज्ञान भी रखता आया है और उत्तरोत्तर नवीन-नवीन उपायों का अवलम्बन या अनुसन्धान करता आया है। इस प्रकार आयु (जीवन) और वेद (ज्ञान) दोनों सदैव रहे हैं और रहेंगे। अतः आयुर्वेद नित्य है। आयु के ऊपर हित या अहित प्रभाव डालने वाले संसार के जितने भी पदार्थ हैं उनके स्वभाव या गुण सदैव वही रहे हैं जो आज है और भविष्य में भी रहेंगे। जैसे अग्नि में दाहकत्व सदैव रहा है, है और रहेगा। उसके घातक प्रभाव से बचने और हितकारक प्रभाव के उपयोग के लिए प्राणी सदैव उद्यत रहा है, और रहेगा।
इस प्रकार आयुर्वेद की नित्यता प्रमाणित होते हुए भी उसके सिद्धान्तों का सुव्यवस्थित संकलन कर ग्रन्थ रूप में निबद्ध करना बाद में ही प्रारम्भ हुआ। सभी प्राणियों को सब विषयों का अनुभव नहीं होता। समय-समय पर जिन विशिष्ट व्यक्तियों को जिन वस्तुओं का अनुभव हुआ उसके अनुसार बार-बार परीक्षा कर उन्होंने एक सिद्धान्त स्थिर कर लिया। इन्हीं सिद्धान्तों को मन्त्र और सिद्धान्तकर्ता को मन्त्र-द्रष्टा या ऋषि कहा गया है। इस प्रकार एक के बाद दूसरे सिद्धान्त सामने आने लगे, उनका उपदेश या प्रचार समाज में होने लगा और इन सिद्धान्तों के संकलनात्मक ग्रन्थों का निर्माण होने लगा। इसी आधार पर आयुर्वेद की भी उत्पत्ति मानना अनुचित नहीं है। भगवान् चरक ने भी कहा है ‘नह्यायुर्वेदस्याभूत्वोत्पत्तिरुपलभ्यते, अन्यत्रावबोधोपदेशाभ्याम्, एतद्वै द्वयमधिकृत्योत्पत्तिमुपदिशन्त्येके’ (च.सू. ३०)। >
पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका निर्माणकाल ईसा के ३ हजार से ५० हजार वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अति महत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण हैं। अनेक ऐसे विषयों का उल्लेख है जिनके सम्बन्ध में आज के वैज्ञानिक भी अभी तक सफल नहीं हुए हैं। जैसे यज्ञ के कटे हुए सिर को के जोड़ना, विश्पला की कटी टाँग के स्थान पर लोहे की टांग लगाना आदि। यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इसी प्रकार आयुर्वेदिक विषयों का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में शारीर शास्त्र, ओषधि एवं चिकित्सा के विविध अंगों और विधियों का वर्णन प्रचुरता से मिलता है। इसीलिए आयुर्वेद अथर्ववेद का ही उपवेद माना जाता है। वेदों के बाद ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रन्थों में भी इनका क्रमशः विकसित और विस्तृत विवेचन मिलता है।
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