धार्मिक क्षेत्र से जुड़े अधिकांश व्यक्ति ईश्वर की उपासना करने की इच्छा रखते हैं। उनमें से कुछ व्यक्ति उपासना की विधि-प्रक्रिया न जानने से उपासना को प्रारंभ नहीं कर पाते हैं, कुछ व्यक्ति अपने उपासना संबंधी कम ज्ञान के अनुसार ही उत्साहपूर्वक जैसे-तैसे उपासना प्रारंभ कर देते हैं, कुछ व्यक्ति उपासना की विधि-प्रक्रिया की महत्त्वपूर्ण बातें जान समझ कर उपासना प्रारंभ करते हैं। जो उपासना की विधि को जानते ही नहीं या थोड़ा जानते हैं उनकी उपासना सफलता की ओर बढ़ नहीं पाती है। जो मुख्य-मुख्य बातें जानकर उपासना करते हैं, उनमें से अनेक व्यक्ति कुछ छोटी-छोटी बातों को न समझ पाने से सफलता में बाधा अनुभव कर सकते हैं, अनेक उपासक उन बाधाओं को समझ कर उचित समाधान भी ढूंढ निकालते हैं व प्रगति करने लगते हैं।
अच्छी उपासना कर पाना साधक की एक बड़ी उपलब्धि होती है। उपासना की अच्छी स्थिति बनाये रखना कोई सरल कार्य नहीं है। अनेक वर्षों के पुरुषार्थ के बाद साधक अच्छी उपासना कर पाता है। ईश्वरोपासकों के सामने प्रायः समस्या रहती है कि उपासना अच्छी कैसे हो ? जो उपासना की विधि नहीं जानते यदि वे विधि जानने का प्रयास करते रहें, जो विधि जानते हुए भी नहीं कर पा रहे यदि वे बाधक कारणों को पकड़ने का
प्रयास करते रहें, जो बाधक कारणों को पकड़ पाये हैं यदि वे उनका समाधान ढूंढने का प्रयास करते रहें तो पायेंगे कि पूर्वापेक्षया धीरे-धीरे अच्छी उपासना होने लग गयी है । उपासना संबंधी अधिकांश बाधायें उपासकों में एक जैसी मिलती हैं, कुछ बाधायें व्यक्ति की परिस्थिति विशेष के कारण भिन्न-भिन्न भी हो सकती हैं। उपासकों को किन-किन बातों का ध्यान रखते हुए उपासना करनी चाहिए, मुख्यतः क्या-क्या बाधायें आती हैं व उनका समाधान क्या है, इस बारे में उपासना के अभ्यासी गुरुजन बताते है रहते हैं । गुरुजनों द्वारा बताई गई बातों को तीन वर्गों में बांट कर समझा जा सकता है। कुछ कार्य उपासनाकाल से पूर्व करने होते हैं, यह उपासना की सज्जा करना है, इसे ‘पूर्वकर्म’ कहेंगे। कुछ कार्य उपासनाकाल में करने होते हैं, इसमें उपासना करना मुख्य होता है, उपासना के तत्काल पूर्व व तत्काल बाद की बातें भी इसमें अन्तर्भावित कर ली जाती हैं, इसे ‘प्रधानकर्म’ कहेंगे। कुछ कार्य उपासना के बाद अपने दिन-रात के व्यवहार को करते हुए या उनके बीच-बीच में करने होते हैं, इनसे पूर्वकृत उपासना का लाभ उठाया जाता है व भविष्य में अच्छी उपासना के लिए उपयुक्त मनःस्थिति बनाई जाती है, इसे पश्चात्कर्म कहेंगे। पूर्वकर्म, प्रधानकर्म व पश्चात्कर्म इन तीनों वर्गों के कार्य यदि ठीक सम्पादित हो रहे हों तो निःसंदेह उपासना में दिनोंदिन प्रगति अनुभव की जा सकती है। यद्यपि इन तीनों में प्रधानकर्म ही मुख्य है, परन्तु पूर्वकर्म व पश्चात्कर्म का भी उपासना को अच्छा बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान रहता हैअनेक उपासक केवल उपासना काल में की जा रही क्रियाओं को ठीक प्रकार से करना ही पर्याप्त मान बैठते हैं, किन्तु होता यह है कि उतने मात्र से वे प्रगति कम ही कर पाते हैं, वह भी कुछ काल तक ही। यदि उपासना में सतत सुधार करते चले जाना है तो पूर्वकर्म व पश्चात्कर्म का भी सहारा लेना होगा। साधनों की उपलब्धता जितनी अधिक होगी, सफलता की संभावना उतनी अधिक बढ़ जायेगी। कोई भी व्यक्ति सभी साधनों को एकदम नहीं जुटा सकता, धीरे-धीरे अधिकाधिक साधन जुटते हैं। धीरे-धीरे ही उपासना की श्रेष्ठता में वृद्धि होती है। अतः बड़े धैर्य से, निराश हुए बिना, लंबे काल तक लगे रहना होता है।
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