संस्कृति का एक सबल पक्ष है संगीत। लिपिस्वरूप भाषा से पूर्व धुन अस्तित्व में आई होगी लेकिन धुन का भी तो अपना एक भाषायी सम्प्रेषण होता है। सृष्टि की रचना को स्फोटोत्पन्न मानने वाले प्रमाणविद् संसार को नादात्मक और सम्पूर्णतः नाद की रचना ही स्वीकारते हैं। नाद का अपना विज्ञान है और गान इसका श्रुतिसरल स्वरूप है जिसके पर्याय हैं गेय, गीति और गान्धर्व। इसका नियमन करने वाले शास्त्र को गान्धर्ववेद कहा गया है। गान्धर्व के अर्थ में आचार्य दन्तिल का दृष्टिकोण है- पदस्थ स्वरसंघातस्तालेन संगतस्तथा। प्रयुक्तश्चावधानेन गान्धर्वमभिधीयते ॥ उक्त मत केवल गान्धर्वगान के अर्थ में है। इसी प्रकार संगीतदर्पणकार का संक्षिप्त मत भी गान के सन्दर्भ में विचारणीय है- गानन्तु नादात्मकमेव नादस्तु यदा स्वयं राजते तदा स्वर इति प्रसिद्धः स्यात्। स्वरस्तु षड्ज ऋषभ गान्धार मध्यम पञ्चम धैवत निषादभेदात् सप्तविधः। एतेषां विज्ञापनार्थं एतदाश्रयीभूत द्वाविंशति श्रुतिनाम् ।
काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने वाड्मय की परिभाषा में शास्त्र और काव्य को रेखांकित किया है और रचना के लिए शास्त्र-प्रवेश को अपरिहार्य (पूर्व शास्त्रेष्वभिनिविशेत्) मानते हुए जिन चार उपवेदों की मान्यता दी है, उनमें गान्धर्ववेद तीसरे क्रम पर है- इतिहासवेदधनुर्वेदौ गान्धर्वायुर्वेदावपि चोपवेदाः। आगे आचार्य द्रौहिण का कथन उद्धृत करते हुए वह कहते हैं कि पाँचवा नाट्यवेद अथवा गेयवेद है जो सभी वेदों और उपवेदों की आत्मा है तथा सभी वर्गों के लिए विहित है। भागवत में वास्तु को महत्व देते हुए आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और स्थापत्यवेद- का क्रम रखा गया है जैसा कि शब्दकल्पद्रुमकार का मत है। इसकी विषयवस्तु की उद्भावना देते हुए संगीतदर्पण के टीकाकार कहते हैं- ऋगभिः पाठ्यममूद्गीतं सामभ्यः समपद्यत । यजुर्थोऽभिनया जाता रसाश्चाथर्वणः स्मृताः ॥ यही विचार भरताचार्य का भी है- जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् समाभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ॥ इसका आशय है कि ऋग्वेद से पाठ्य (संवाद या गद्यपद्यात्मक अंग), सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रसों को ग्रहणकर गेयवेद या नाट्यवेद को नियमित किया गया है।
नाट्यवेद में गान्धर्ववेद की उपयोगिता और महत्ता भरताचार्य सिद्ध करते हुए कहते हैं कि इसी से नाट्य की तैयारी सम्भव है। वह इसे गानयोग (नारदाद्याश्च गन्धर्वा गानयोगे नियोजिताः) भी कहते हैं जिसका आचार्य अभिनवगुप्त ने अर्थ किया है : वीणा आदि तन्त्रियों तथा वंशी आदि के वादन का कार्य। यह वृन्दवाद्य या आद्योत के कार्य के सम्पादन के लिए निर्धारित है।
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