जन ही जिनका धन और संघर्ष ही जिनका ध्येय बना! हर कीमत पर जिन्हें अपनी स्वाधीनता अपेक्षित और वांछित थी-ऐसे महाराणा प्रताप की यशगाथा का गान देश की मिट्टी का कण-कण करता आया है। प्रताप अपने जीवनकाल में ही कलमकारों के लिए आदर्श हो गए। उनका जीवन चरित्र जन-जन के लिए आदर्श है। अपने काल के वह एक ऐसे नरपति-नराधिप हैं जिन्होंने अपने आश्रय में कवियूँदों को अपना चरित्र लिखने के लिए प्रेरित नहीं किया जबकि दूसरी ओर शहंशाह को जमीं पर खुदा का नूर जाहिर करने के लिए पुरजोर कोशिशें हो रही थीं। प्रताप के काल का लिखा उनका कोई चरित्र काव्य नहीं मिलता। उनका स्मारक तक नहीं, कोई सिक्का तक नहीं। मगर, उनके ध्येय, धराव्रत और धैर्य की ही यह प्रभावोत्पादक धुरी रही कि उनके शत्रु शहंशाह अकबर तक के आश्रय में रहने वाले दरबारी-कवियों की कलम ने नतमस्तक होकर उनके यशाभिवर्धन का श्रेय अर्जित करने की प्रतिस्पर्धा दिखाई।
वह जितने जिये नहीं, उससे अधिक उनका संघर्ष-यश चिरायु हुआ। मानवाधिकारों की सुरक्षा की दिशा में उनका पुरजोर प्रयास कालजयी हुआ। उनके संकल्पों की सृष्टि कुछ ऐसी सुधामय बूंदों से निर्मित हुई कि वे संकल्पों के बीज कालान्तर में आदर्शों की बुनियाद रखने और प्रेरणा के पाथेय बनने में सफलधर्मा हुए। कलमें आज तक उनके जीवन, जिद, जमीनी जज्बात, जिजीविषा और जीवट को जीवंत रखने का ज्वार जगाए हुए है और इसी में अपनी स्याही की सार्थकता सिद्ध करती हुईं स्वयं को सफल समझती है।
कुंभलगढ़ ऐसे प्रतापी संकल्पों के जन्माविर्भाव का कौतुक बना हुआ है तो गोगुंदा उनके संघर्ष के गौरवस्पद बीजों को अक्षुण्ण रखे हुए है। हल्दीघाटी-खमनोर की हल्दीरंगी माटी प्रतापी इरादों को दूल्हे का-सा रंग चढ़ाती लगती है तो चावण्ड-जावर-छप्पन की भीष्मशय्या-सी वसुंधरा उन संकल्पों की सुदूर्दर्श सेज बनी है और बांडोली का सरित् प्रवाह उन सनातन संकल्पों से देशवासियों का सुधामय अभिषेक करता प्रतीति दे रहा है। – –
कविवर श्यामनारायण पांडेय का ‘हल्दीघाटी महाकाव्य प्रणवीर प्रताप को समर्पित वह काव्यकृति है जिसके सभी तेरह सर्गों का एक-एक छंद और एक-एक शब्द संकल्पों के मूर्तरूप महाराणा की अभ्यर्थना-आराधना करने वाला है। यह वह ग्रंथ है जिसे पढ़कर पिछली सदी में सैकड़ों-हजारों हृदय कवित्वगुण संपन्न हुए है और जिन्होंने अपने-अपने ढंग से रचना रचकर चेतकस्वामी को श्रद्धांजलि समर्पित की है। इस तरह यह काव्यग्रंथ स्वयं ही यशकाय है। प्रताप के साथ कवि की सारी संवेदनाएं और उनके स्वर प्रतिष्ठा के योग्य स्वरूप में साक्षात् हुए हैं। इस कृति के कई-कई छंद जन-जन की जुबां पर जमीन बनाए हुए हैं किंतु कृति लंबे समय से अनुपलब्ध रही है।
लोगों की निगाहें हल्दीघाटी को खोजती रही है। इस अनुपलब्ध-अलभ्य सी कृति की एक प्रति मिली तो नई पीढ़ी के अध्ययन और आदर्शों संस्कारों की स्थापना में सेतु मानकर सअर्थ प्रकाशित करने का विचार हुआ। इस विचार की पूर्णता साहित्यसेवी, इतिहासकार श्रीनारायणलाल शर्मा के अवदान के साथ हुआ। उन्होंने तेरह ही सर्गों के एक-एक छंदपंक्ति का सलाघव अनुवाद भावार्थ प्रकट कर न केवल प्रताप के चरित्र को मणि-प्रातिभ किया है वरन् कविवर पांडेय के विचारों के वातायन भी खोलने का उपक्रम किया है। उन्हें धन्यवाद कहूं कि उनका आभार मानूं, उनका अवदान इस रूप में सदा स्मरणीय रहेगा कि प्रताप के चरित्र पर आधारित कृति उन्होंने नई पीढ़ी के लिए सभावार्थ उपलब्ध करवाने में कई-कई रातें आंखों-आंखों में काटी है। इसलिए कि यह कृति एक नए रूप में सामने आए, पढ़ी जाए। –
यह कृति प्रताप और पांडेयजी को श्रद्धांजलि के रूप में एक सेवा-सुमन स्वरूप में प्रकाशित हो रही है। इसके पूर्व प्रकाशक महानुभाव और वर्तमान स्वरूप देकर निष्काम सेवा का आलोक बांटने वाले प्रकाशकजी का भी हमें आभार स्वीकारना चाहिए। रचना के प्रेरक प्रताप और रचनाकार पांडेयजी दोनों ही हमारे बीच नहीं रहे किंतु यशकाय कभी जरावस्था या मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। वह नित्य प्राणवान रहता है। एक व्यक्तित्व अद्भुत, अविस्मरणीय आदर्श के रूप में है तो दूसरा व्यक्तित्व आदर्शों को कलमबद्ध करने वाले करतबी कर्तृत्व के रूप में। पुनर्प्रकाशन का यह पुष्प दोनों विभूतियों के चरणों में निवेदित करते हुए हृदय आह्लादित हो रहा है। इस बहाने प्रताप का संघर्षी संकल्प पढ़ा और दोहराया तथा कवि के भावों को आत्मसात् किया जाएगा : जो प्रताप की गाथा पढ़ता, पुंज प्रेरणा का पाता है; हल्दीघाटी जो गाता, वह इकयोद्धा हो जाता है.
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