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हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत

Hamari Sanskrutik Vichardhara Ke Mul Strot

125.00

Author: Suresh Soni

Out of stock

Subject : Hamari Sanskrutik Vichardhara Ke Mul Strot
Edition : 2016
Publishing Year : N/A
SKU # : 37476-SP03-0H
ISBN : 9788173159329
Packing : N/A
Pages : 172
Dimensions : N/A
Weight : NULL
Binding : Paperback
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्येष्ठ प्रचारक और विद्यमान सरकार्यवाह श्री सुरेश जी सोनी के इस, आकृति में लघु किन्तु प्रकृति में महान्, पुस्तक की में प्रस्तावना लिखने का दायित्व श्री सोनीजी ने मुझपर सौंपा, यह मैं अपना गौरव मानता हूँ। मेरे मन में इसके बारे में यत्किंचित भी सन्देह नहीं कि मैं इस कार्य के लिए सर्वथा अपात्र हूँ। संघ में अनेक श्रेष्ठ कार्यकर्ता हैं, जो इस विषय के गहरे जानकार हैं, किन्तु जिन्होंने अपने को स्वयं होकर अप्रसिद्धि के अन्धेरे में रखने का व्रत धारण किया है। उनमें से कोई इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखता तो उचित होता। किन्तु जब स्नेह का पलड़ा भारी हो जाता है तो औचित्य हल्का पड़ता है। मैं अपनी अल्पज्ञता को भलीभाँति जानते हुए भी सोनीजी के असीम स्नेह के कारण ही इस साहस के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। अपने एकात्मता स्तोत्र में दो श्लोक हैं :

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा।

रामायणं भारतं च गीता सदर्शनानि च।।

जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः ।

एषः ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा।।

सोनीजी के इस सुन्दर पुस्तक की विषयवस्तु यही दो श्लोक हैं। इन दो श्लोकों में हमारी अति प्राचीन सांस्कृतिक जीवनधारा के मूलस्रोतों का निर्देश किया हुआ है। इन सब स्रोतों को इन श्लोकों में 'ज्ञाननिधि' कहा है और सलाह दी है कि सभी लोगों को निरन्तर इसको अपने अन्तःकरण में धारण करना चाहिए। परन्तु समस्या यह रहती है कि इस विशाल ज्ञानधन को अपने बुद्धि के छोटे से संदूक में कैसे रखें । चार वेद, अट्ठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद्, रामायण, करीब एक लाख श्लोकों का महाभारत, जैनों के आगम ग्रन्थ, बौद्धों के त्रिपिटक, सिख भाईयों का गुरुग्रन्थ साहिब और फिर भिन्न-भिन्न प्रदेशों के साधु-संतों की पवित्र वाणी- इन सब ग्रन्थों और वाणियों के केवल आद्याक्षरों का भी संचय करने का कोई सोचेगा, तो उसके भी कई ग्रन्थ होंगे। किन्तु सोनीजी की विशेषता यह है कि केवल करीब एक सौ चालीस पृष्ठों में इस बृहद् ज्ञान-भंडार को उन्होंने समेटा है। मानो सागर को गागर में भर दिया है सुदृढ़ विषयवस्तु का गहरा ज्ञान रखे बगैर यह अद्भुत कार्य संपन्न नहीं हो सकता। श्री सोनी जी इस गंभीर ज्ञान के धनी हैं और उन्होंने अपनी अत्यंत सरल और सुबोध शैली में इस मूल स्रोतों के ग्रंथों का परिचय करा दिया है। मैं मानता हूँ कि, नयी जिज्ञासु पीढ़ी के लिए यह पुस्तक यानी एक वरदान है, जिसे सभी को पढ़ना चाहिए और अपनी प्राचीन श्रेष्ठ परम्परा से अपना नाता और करना चाहिए। इन मौलिक ज्ञान सम्पदा का परिचय देने के साथ ही जो अनेक भ्रान्तियाँ, खासकर अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने वालों के मन में दृढमूल हो गयी हैं, उनकी भी चर्चा श्री सोनीजी ने इस पुस्तक में की है। यह बात सही है कि पाश्चात्य विद्वानों ने हिन्दुओं के धर्मग्रन्थों का चिकित्सा बुद्धि से अध्ययन किया और उस पर भाष्य लिखे। बीच के करीब एक हजार वर्षों में यह परम्परा बन्द सी हुई थी। इसके पीछे जो ऐतिहासिक कारण होंगे इसकी चर्चा में मैं यहाँ नहीं जाऊँगा। किन्तु सायणाचार्य का एक अपवाद छोड़ दिया तो वेदसंहिताओं पर, उस सहस्राब्दी में और कोई भाष्य लिखा नहीं गया। पुराने भाष्य होंगे किन्तु उनका पता नहीं। कारण दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी से अरबस्थान से इस्लाम की जो एक भीषण और विध्वंसक आँधी चली और जिस आँधी ने, उसके पूर्व के सारे विश्व के ज्ञान भण्डार को नष्ट करने का बीड़ा उठाया, उसके चलते बहुत सा प्राचीन ज्ञान समाप्त हो गया। अलेक्झांड्रिया के विशाल ग्रन्थालय को जलाने के लिए प्रस्तुत खलीफा उमर ने, ग्रंथालय को बचाने वाले लोगों के साथ जो युक्तिवाद किया, वह सर्वपरिचित है। उमर ने कहा था कि, इस ग्रंथालय में जो ग्रन्थ हैं, उनमें कुरान शरीफ में जो ज्ञान होगा वही है, तो इसका कोई उपयोग नहीं है और उनमें यदि वह चीज है, जो कुरान शरीफ में नहीं है, तो वह पाखण्ड है, अतः इसको नष्ट ही करना चाहिए। और उसने उस ग्रन्थालय को जला डाला। भारत में भी बेलगाम आँधी ने इसी प्रकार का विध्वंस किया। क्या तक्षशिला, क्या काशी, क्या नालंदा-जो भी उस समय के विश्व- विख्यात विद्यानिधान थे, वे सारे उध्वस्त किये गये। अतः, प्राचीन भाष्य, यदि होंगे तो भी उनकी जानकारी आज की पीढ़ी को नहीं है। अंग्रेज और जर्मन पण्डितों का हमें इसलिए धन्यवाद करना चाहिए कि, उन्होंने इस प्राचीन ज्ञान भण्डार को सामने लाने के प्रयास किये। किन्तु, पाश्चात्य पण्डितों के इन प्रयासों के पीछे हेतु Iसद्भावनापूर्ण नहीं थे। प्रो. मैक्समूलर जो इन पाश्चात्य संस्कृत पण्डितों के मूर्धन्य माने जाते हैं, उन्होंने तो अपनी पत्नी को साफ-साफ लिखा है कि “वेद का मेरा यह अनुवाद उत्तर काल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उनके धर्म का मूल है और विगत तीन हजार वर्षों से उत्पन्न आस्थाओं को जड़मूल से उखाड़ने का उपाय है उन्हें उनका मूल दिखाना।” श्री एन.के. मजूमदार को, मृत्यु से एक वर्ष पूर्व लिखे पत्र में, वे लिखते हैं “मैं हिन्दू धर्म को शुद्ध बनाकर ईसाइयत के पास लाने का प्रयास कर रहा हूँ। आप या केशवचन्द्र सरीखे लोग प्रकट तौर पर ईसाइयत को स्वीकार क्यों नहीं करते ?…. नदी पर पुल तैयार है। केवल तुम लोगों को चलकर आना बाकी है। पुल के उस पार लोग स्वागत के लिए आपकी राह देख रहे हैं। जिस कर्नल बोडन ने पर्याप्त धनराशि देकर एक अध्ययन पीठ तैयार किया और जिस पीठ ने अनेकानेक अंग्रेज पंडितों को प्रचुर मानधन देकर संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन, अनुवाद और समीक्षा के लिए प्रवृत्त किया था, उसकी भी मनीषा यही थी कि हिन्दुओं को ईसाई बनाया जाय । प्रो. मैक्समूलर को बोडन विश्वस्त निधि से ही आर्थिक सहायता प्राप्त थी। तात्पर्य यह है कि वेदसंहिताओं, पुराणों या अन्य प्राचीन साहित्य के अनुवाद के लिए इन पण्डितों का एक विशिष्ट मन्तव्य था और उस मन्तव्य के साये में ही उन्होंने अपने प्राचीन ग्रन्थों का अर्थ विशद किया। श्री सोनी जी ने 'एक षड्यन्त्र' शीर्षक वाले अध्याय में इसकी अच्छी चर्चा की है, I  जो वहाँ ही समग्रता से पढ़ी जा सकती है।

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