ज्योतिष का लेशमात्र भी ज्ञान या जानकारी जिन लोगों को नहीं है, उनको सुशिक्षित करने के लिए ज्योतिष विद्या सम्बन्धी पुस्तकें बहुल मात्रा मे होनी निश्चित ही हैं किन्तु यह पुस्तक अपने आप में अद्वितीय होगी क्योंकि इसमें यह दर्शाने का यत्न किया गया है कि ज्योतिष विद्या न केवल विज्ञान अपितु विज्ञानों का भी विज्ञान है, निश्चित शास्त्र है।
ज्योतिष विद्या से भलीभाँति परिचित व्यक्ति भी इस पुस्तक का अध्ययन करने के पश्चात सुनिश्चित हो जाएँगे कि जिस ज्ञान-शाखा को वे इतना अधिक प्रेम करते हैं, वह कितने अधिक वैज्ञानिक आधार पर स्थिर है, तथा इससे उन लोगों को ज्योतिष विद्या में अविश्वास करने वालों अथवा उसका उपहास करने वालों से अपने मत का सही प्रतिपादन करने में निश्चित ही सहायता मिलेगी।
हमने प्रारम्भिक अध्यायों में मुख्य रूप से यह सिद्ध करने का युक्ति युक्त ढंग से यत्न किया है कि अनजाने में जन्म लेने वाला तथा निष्ठुरतापूर्वक काल के कराल गाल में समा जाने वाला मनुष्य चाहे जितनी भी शेखी बघारे किन्तु वह होता है अपने चारों ओर की परिस्थितियों का गुलाम ही। वह मनुष्य इस अनवरत चल रहे संसार-चक्र की एक कील मात्र है उससे अधिक कुछ नहीं। इस पुस्तक में ज्योतिष विद्या के सभी उपयुक्त स्थलों पर हमने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया है कि पुस्तक किसी भी अन्य विज्ञान के नियमों को तुच्छ न समझ कर उन नियमों को निश्चित रूप से शाश्वत मानती है तथा अपने निष्कर्षों को भौतिकी, खगोल शास्त्र तथा गणित-शास्त्र पर आधारित करती है।
जहाँ ज्योतिष के विषय से सर्वथा अछूते, अनभिज्ञ व्यक्तियों को पर्याप्त ज्ञान देना इस पुस्तक का प्रयोजन है वहीं प्रकाण्ड ज्योतिषियों के लिए भी सम्पूर्ण वैदिक ज्योतिष का सार इस पुस्तक में है। अतः, ज्योतिष-विषय के मूल सिद्धान्तों से प्रारम्भ कर उसके नियमों का विशद विवेचन इस पुस्तक में किया गया है।
ज्योतिष की इस पुस्तक से यह भी सम्भावना है कि पाठक के हृदय में आगे अध्ययन करने की रुचि उत्पन्न हो जाए। वह ज्योतिष विद्या में गहन- अन्वेषणों में प्रवृत्त हो, ऐसी पूर्ण सम्भावना है।
इस पुस्तक के अध्ययन से पाठक के लिए विश्व पर दृष्टिपात करने के के लिए एक नई खिड़की उपलब्ध होगी, ऐसी आशा है। सम्भव है कि प्रत्येक पाठक, महिला हो अथवा पुरुष, अपने समस्त कार्यकलापों को दम्भ से देखना समाप्त कर दे और इसके स्थान पर दैवी इच्छा तथा ईश्वरीय विधान के समक्ष विनम्र समर्पण-भाव एवं पूज्य भाव की वृत्ति को विकसित करे।
प्रायः धारणा यह रहती है कि ज्योतिष विद्या में आस्था से उद्योगशीलता एवं कार्य करने की इच्छा का हनन होता है। वह धारणा ज्योतिष विद्या के एक मूल सिद्धान्त का उल्लंघन करती है किसी व्यक्ति के लिए यदि विधि का विधान क्रियाशील रहने का है, तो वह किसी भी प्रकार निष्क्रिय नहीं रह सकता चाहे उसकी आस्था ज्योतिष विद्या में कितनी ही गहरी क्यों न हो! इतना ही नहीं, हम कह सकते हैं कि हमारा अनुभव यह रहा है कि ज्योतिष में दृढ़ विश्वास रखने वाला व्यक्ति ईश्वरप्रदत्त कार्यभार पूर्ण करने के लिए इस अनित्य संसार में पूर्ण निष्ठा एवं स्थिर साहस से कार्यरत होता है।
ज्योतिष में विश्वासी व्यक्ति श्रेष्ठतर मानव तथा अधिक जागरूक नागरिक होता है क्योंकि ज्योतिष विद्या अहम् भाव को भयंकर रूप में आश्चर्यजनक ढंग से नष्ट करती है। दूसरी ओर, अविश्वासी लोग सिद्धान्तहीन, ढोंगी तथा दम्भी बने रहते हैं जो न तो ईश्वर से भय खाते हैं और न ही मनुष्य से।
हमें उन लोगों की अदूरदर्शिता पर तरस आता है जो मनुष्य के ‘स्व-निर्माणकर्ता स्तर की दुहाई देते हैं। यदि वे अपनी आँखे थोड़ी ही और अधिक खोलने का कष्ट करें और इस विस्तृत संसार पर दृष्टि डालें, तो पाएँगे कि मनुष्य को सभी प्रकार की पुलिस-शिक्षा देने के उपरान्त भी, एक कुत्ता, चोर का पता लगाने में उससे बढ़कर है, किसी भी व्यायामशाला में जाए बिना ही गजराज निपुण कसरती पहलवान है, किसी भी प्रकार तैराकी का प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना ही घोड़ा दम्भी मानव से बेहतर तैराक है, किसी युद्ध-विद्या के विद्यालय में प्रविष्ट हुए बिना ही चीता विकट लड़ाका है, बिना किसी पूर्व-विग्रह के ही सौंप और नेवले जन्मजात घोर शत्रु हैं, और सिंह जन्म से ही पशुओं का सर्वमान्य सम्राट है यद्यपि किसी ने भी उसको मुकुट अथवा आसन प्रदान नहीं किया है।
क्या उपर्युक्त उदाहरण किसी भी विनम्र तथा सरल व्यक्ति को यह विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि प्रत्येक मानव भी ईश्वर द्वारा कुछ ही निश्चित, सुस्पष्ट क्षमताओं से युक्त उत्पन्न किया गया है और उसे इस दैवी नाटक मे निर्धारित पात्रता का निर्दिष्ट अभिनय यथा समय ही करना है!!
ज्योतिष विद्या का ज्ञान सर्वप्रथम भारत में हुआ था। यहाँ पर इसका अध्ययन इतना सांगोपांग तथा पूर्ण रूप में किया गया था कि गणित के प्रश्नों के समान ही, विश्व के किसी भी भाग में उत्पन्न हुए अथवा उत्पन्न होने वाले किसी भी व्यक्ति के जीवन की एक-एक पग पर तथा एक-एक क्षण पर घटित होने वाले अवसरों का ठीक-ठीक निर्धारण भारतीय ऋषिगण तथा द्रष्टा किसी भी समय कर सकते थे। सभी युगों और सभी क्षेत्रों के सभी मनुष्यों के लिए ऐसी विशद भविष्यवाणियों के संग्रह-के-संग्रह भृगु संहिता, सूर्य-सिद्धान्त और नारद नाड़ी के नाम से सुप्रसिद्ध हो हमारे इस वर्तमान युग में ही इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। उनकी भविष्यवाणियों की प्रणाली तथा विलक्षण सही स्थिति दर्शाती है कि हमारे चारों ओर फैले संसार के किसी भी रासायनिक सिद्धान्त तथा सैनिक यन्त्र की ही भाँति मनुष्य भी है। जनसंख्या-वृद्धि के इस युग में बहुप्रजननशील मानव जन्मों के सम्बन्ध में ज्योतिष का स्पष्टीकरण पूछने वालों से हम इतना ही कहेंगे कि यह कोई असामान्य सिद्धान्त नहीं है। संसार में ऐसा हस्तलिखित है जिसमें अनेक, अधिक या न्यून प्रजननशील सभ्यताएँ उत्कर्ष को प्राप्त हुई तथा विलुप्त हो गई। यहाँ पर पाठक को हम भौतिकि के एक नियम का स्मरण दिलाना चाहते हैं जो पूर्णरूप से ज्योतिष पर भी लागू होता है। भौतिकशास्त्र कहता है कि संसार की वस्तुओं का कुल जोड़ ज्यों-का-त्यों रहता है, यह केवल आकार बदलता रहता है, किन्तु नष्ट कभी भी नहीं होता। इसी प्रकार ज्योतिषशास्त्र भी कहता है कि जीवधारियों की कुल संख्या ज्यों-की-त्यों रहती है, जीवधारी केवल रूप बदलते रहते हैं। उनका जोड़ न कभी बढ़ता है, और न ही कभी घटता है। इसकी पुष्टि पर्यवेक्षण द्वारा की जा सकती है। यदि मानवों की संख्या बढ़ती है, तो वे अपने रहने के लिए जंगलों को काटकर तथा विनाशक कीटों को नष्ट कर जंगली पशुओं की संख्या कम कर देते हैं। कहने का अर्थ यह है कि जिस मात्रा में मानव बढ़ते हैं,
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