कृषि मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में मानव की सबसे बड़ी खोज है। यह आत्मनिर्भर मानवीय समाज की सूचक है। इसने मानव को सभ्यता का पहला और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाया है। इस कार्य को न तो अकारण कहा गया है न ही अनायास बल्कि नितान्त करणीय और श्रमसाध्य बताया गया है। इसे सभी वर्षों के लिए आवश्यक और अनुसरणीय स्वीकारा गया है। इस कार्य से व्यक्ति व्यर्थ के प्रपंच से दूर होकर अपने पाँवों पर खड़ा होने का सामर्थ्य रखता है। विश्व के सन्दर्भ में कृषि का आरम्भ 9000 ईसापूर्व ही हो गया था किन्तु मानव समुदाय में पशुपालन की प्रक्रिया 6000 और 4000 ईसापूर्व के बीच ही आरम्भ हो पाई थी।
वैदिक काल से ही ऋषियों ने कृषि की सफलता की कामना की और एतद्विषयक सूक्तों की रचना की। ऋषियों ने चाहा कि हल से जोती गई भूमि को इन्द्रदेव उत्तम वर्षा से सींचे और सूर्य अपनी रश्मियों से उसकी रक्षा करें-
सीरा युञ्जन्ति कवयो युग वि तन्वते पृथक्करण। धीरा देवेषु सुमन्यौ ॥ 1॥
इस वैदिक उक्ति का भाव यह है कि आस्थावान बुद्धिमान लोग विशेष सुखों को प्राप्त करने के लिए भूमि को हल से जोतते हैं और कृषिकार्य करते हैं। (कृषिकार्य न हो तो) वे बैलों के कन्धों पर रखे जाने वाले जुओं को प्रायः उतारकर रखते हैं।
युनक्त सिरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम्। विराजः श्नुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वामा यवन् ॥ 2॥
इस उक्ति में निर्देश है कि जुओं को फैलाकर हलों से जोड़ना चाहिए और फिर भूमि की जुताई करनी चाहिए। सम्यक् रूप से तैयार हो जाने पर उस भूमि में बीजों को बोना चाहिए। इससे अन्न की उपज होगी, खूब धान्य निपजेगा और पक जाने के बाद हमें फल या अन्न मिलेगा।
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