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कात्यायनशुल्बसूत्रम्

Katyayan Shulba Sutram

350.00

Subject : Grihya Sutram
Edition : 2011
Publishing Year : 2011
SKU # : 36932-PP00-SH
ISBN : 978189469368
Packing : Hard Cover
Pages : 170
Dimensions : 14X22X2
Weight : 320
Binding : Hard Cover
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कात्यायन विरचित शुल्बसूत्र यद्यपि छोटा सा ही है, किन्तु विषय की गम्भीरता एवं वैज्ञानिक चिन्तन होने के कारण अत्यन्त क्लिष्ट है। विषय का प्रतिपादन सूत्रों में निबद्ध होने से इसकी क्लिष्टता और बढ़ जाती है। सर्वप्रथम जब (सन् 1994 ई. में) मैं श्रीलालबहादुरशास्त्रीराष्ट्रियसंस्कृतविद्यापीठ, नई दिल्ली में शोधकार्य कर रहा था तब इस ग्रंथ की सरलावृत्ति पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने बड़े ध्यान से इसका अध्ययन किया तथापि विषय का सम्यक् अवगमन नहीं हो सका। उसी समय विद्यापीठीय वेद-विभाग के आचार्य प्रो. रमेशचन्द्रदाश शर्मा जी ने कात्यायनशुल्बसूत्र का सोपपत्तिक पर्यालोचन कर ग्रन्थ प्रकाशित करवाया था। विद्यापीठीय पुस्तकालय में यह ग्रन्थ भी दृष्टिगत हुआ। इसके अध्ययनोपरान्त कुछ बातें समझ में तो आईं, किन्तु कलिकाल में स्मरण शक्ति की अल्पता एवं शुल्ब जैसे दुरूह ग्रन्थ की जटिलता रूपी समुद्र के बीच खड़ा मैं नखों से पर्वत खोदने के समान ही अध्ययन करता रहा परन्तु पर्वत असीम ही बना रहा। शोधकार्य के उपरान्त जीविकोपार्जन में व्यस्त होने के उपरान्त तो जैविक दशा शुल्ब की तरह ही उलझ गई। जैसे रस्सी के जल जाने के बाद भी उसका गुण (उलझन ऐंठन) नहीं हटता उसी प्रकार अध्ययन के उपरान्त जीवन के उलझनों में इस प्रकार उलझ गया कि पता ही न चला कि कब सवेरा हुआ कब शाम हुई। कुछ लोग जिन्हें पढ़ने-लिखने से कोई मतलब न था, बेकार उलझनों को उत्पन्न करते रहे, मैं भी उलझनों में उलझता, वियावान जंगल में खुद को अकेला समझता हुआ ईश्वर एवं गुरुओं की प्रार्थना करता रहा कि किसी प्रकार इससे मुक्ति मिले ताकि इच्छित दिशा की ओर अग्रसर हो सकूँ।

फलतः ईश्वर की कृपा एवं गुरुजनों के शुभाशीर्वाद से शोधग्रंथ का प्रकाशन राष्ट्रियसंस्कृतिसंस्थान के वित्तीय अनुदान से हुआ। विभाग एम.एम. नित्यानंदपंतपर्वतीय कृत कटियेष्टिदीपक की ‘हीरा’ हिंदी टिप्पणी भी प्रकाशित हुई। इसी मध्य सन् 2007 में श्रीलालबहादुरशास्त्रीराष्ट्रीयसंस्कृतविद्यापीठ के वेद विभाग में विद्यापीठीय पितृश्रद्धेय प्रो. वाचस्पति उपाध्याय जी की कोट कृपा एवं गुरुजी प्रो. लक्ष्मीश्वर जी झा की पूर्ण सहायता से व्याख्या पद पर नियुक्ति हुई। तदुपरांत ‘अव्ययपुरुष निरूपण’ नामक लघुकाय ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इन त्रिग्रंथों के प्रकाशन से मेरी आत्मशक्ति जागृत हुई और पुनः आरंभ शुल्बसूत्र के अध्ययन में प्रकाशित किया गया। विद्यापीठ की शास्त्री कक्षा के पाठ्यक्रम में यह ग्रंथ रखा गया है।

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