इसी महापुराण के उत्तर भाग में लिखा गया है कि इस पुराण की रचना स्वयं ब्रह्मा जी ने की थी। उन्होंने कहा था कि इस पुराण को जो व्यक्ति आदि से अन्त तक पढ़े या सुने या ब्राह्मणों को सुनावे, उसको तप, यज्ञ, दान आदि से जो फल मिलता है उसके बराबर फल प्राप्त होता है और अन्त में उसको मोक्ष की प्राप्ति होती है। उसके वंश में कोई मूर्ख और प्रमादी नहीं होता है।
ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मा द्वारा रचित यह महापुराण पहले बहुत बड़ा था। बाद में कृष्षाद्वैपायन व्यास (महर्षि व्यास) जी ने इसका नये सिरे से संपादन किया। वर्तमान रूप में जो लिगमहापुराण उपलब्ध है इसका स्थायी रूप चौथी शताब्दी ईस्वी में हुआ ऐसा विद्वान लोग मानते हैं और महर्षि व्यास को ही इसका रचयिता भी मानते हैं। प्रकाशित सभी संस्कारणों में कृष्णद्वैपायन व्यास या महर्षि व्यास प्रणीतम् या प्रोक्तम् छपा हुआ मिलता है। अतः इस महापुराण के रचयिता महर्षि व्यास जी ही मान्य है।
नामकरण
इस महापुराण का नाम लिंगमहापुराण है। यह नामकरण क्यों किया गया इसका कारण यह है कि मुख्य रूप से इसमें लिंग के विषय में वर्णन किया गया है। यह महापुराण शैव पुराण है। शैव सम्प्रदाय में लिग की पूजार्चना और उपासना की जाती है। शिव के भक्त को शैव कहते हैं। उनके सम्प्रदाय को शैव सम्प्रदाय कहा जाता है। इस पुराण में लिग की उत्पति कैसे हुई, उसका परिचय उसके दार्शनिक सिद्धान्त, लिग के म्यूल और सूक्ष्म रूप, उसके पूजन की धार्मिक विधियों और उसके फल का वर्णन मुख्य है। अतः इस पुराण को लिग महापुराण नाम दिया गया है।
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