भारतीय चिन्तन-धारा में दर्शन, मनन, ज्ञान, मीमांसा आदि बौद्धिक विलास मात्र न होकर जीवन के व्यावहारिक पक्ष के अभिन्न अङ्ग रहे हैं। भारतीय दर्शन परम्परा में जीवन के विविध आयामों का अनुसन्धान, समीक्षा, विश्लेषण होता रहा है। धर्म, कर्म तथा दर्शन भारतीय जीवन पद्धति के मूल आधार हैं।
भारतीय साहित्य का अमूल्य आकर ग्रन्थ महाभारत ऐसा ज्ञानमय प्रदीप है जो निरन्तर आधुनिक होते हुआ सनातन स्रोत है। सर्वव्यापक भावभूमि के ग्रन्थ महाभारत में प्रस्तुत मानव जीवन तथा सामाजिक विकास के अनेक सोपान वर्णित हैं। विषय की व्यापकता और विस्तार को लक्ष्य कर ही कहा गया है-
महत्त्वात् भारवत्त्वाद् महाभारतमुच्यते ।
महाभारत ऐसा अनन्त अगाध महासागर है, जिसमें जितनी बार भी प्रवेश किया जाए उतनी बार ही नवीन ज्ञानरत्न चुनकर लाये जा सकते हैं। इसी कारण महाभारत सार्वकालिक, सार्वभौमिक, विवेकी मनुष्य मात्र के लिए महत्त्वाधायक कृति है।
महाभारत एवं भारतीय दर्शन नामक यह ग्रन्थ दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. उपाधि के लिए स्वीकृत महाभारत एवं न्याय वैशेषिक दर्शन शोध-प्रबन्ध का परिवर्धित व परिवर्तित रूप है। पीएच.डी. में प्रवेश के अवसर पर जब शोध-विषय चयन का प्रश्न उपस्थित हुआ, तब तत्कालीन शोध- निर्देशिका वैशेषिक दर्शन की परम विदुषी, आदरणीया प्रोफेसर शशिप्रभा कुमार आचार्या (वर्तमान अध्यक्षा, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला) ने “महाभारत एवं न्याय वैशेषिक दर्शन” विषय का परामर्श दिया। इसके लिए प्रतिमान के रूप में प्रो. रामसुरेश पाण्डेय जी का ग्रन्थ महाभारत एवं पुराणों में सांख्य दर्शन पहले से उपलब्ध था। आचार्या के निर्देशन में शोध-सर्वेक्षण क्रम में डॉ. अनन्त लाल ठाकुर का एक लेख “Mahabharata and The Nyayasastra” प्राप्त हुआ जो शोध-विषय चयन से लेकर महाभारत के अध्ययन क्रम में अत्यन्त सहायक रहा।
सर्वविदित है कि दर्शन का आरम्भ जिज्ञासा से होता है। अतः कोई भी दर्शन-सम्प्रदाय सुदीर्घ चिन्तनधारा से विकसित होता हुआ ही प्रतिष्ठित होता है।
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