महर्षि दयानन्द सरस्वती क्रान्तद्रष्टा युगपुरुष थे। उनके विराट व्यक्तित्व, परहितकारी मानस एवं दूरगामी कृतित्व ने भारतीय समाज के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया। न जाने कितने उनकी प्रेरणा एवं पथप्रदर्शन से ‘कल्याणमार्ग के पथिक’ बने, कितनी सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़ियों से ग्रस्त हमारे तत्कालीन जन मानस को मुक्ति मिली एवं पराधीन भारत के स्वाधीन होने में उनका कितना बड़ा योगदान रहा, इसका समग्र आकलन किया जाना अभी शेष है। प्रस्तुत पुस्तिका इस दिशा में मेरी कृतज्ञता-ज्ञापन का एक स्वल्प प्रयास मात्र है। अस्तु
सर्वप्रथम अपने व्यक्तिगत स्तर पर महर्षि दयानन्द की देन का उल्लेख करूँ तो मुझे यह स्वीकार करने में कथमपि संकोच नहीं कि आज मैं जो कुछ भी हूँ वह सब प्रभु की कृपा, महर्षि दयानन्द का प्रभाव एवं मेरे माता-पिता की प्रेरणा का पुण्य प्रताप है।
विभाजन पूर्व लाहौर के पास मण्डी वारबर्टन (जिला शेखूपुरा) में रहने वाले मेरे पैतृक परिवार ने बीसवीं शती के आरम्भ में ही आर्यसमाज की सदस्यता स्वीकार कर ली थी। मेरे दिवंगत दादा जी श्री हीरानन्द सचदेव ने मण्डी वारबर्टन में पहले पहल आर्यसमाज की स्थापना की और एक पक्का भवन भी बनवाया। मेरे दिवंगत चाचा गौतम सचदेव के शब्दों में-“हीरानन्द जी का आर्यसमाजी होना किसी छोटे-मोटे क्रान्तिकारी कदम से कम नहीं था, क्योंकि इससे न केवल सचदेव कुटुम्ब का सैद्धान्तिक कायाकल्प हुआ, उसका सांस्कृतिक रूपान्तर भी हुआ।” तब (पुत्र-पुत्री एवं पति का निधन हो जाने पर) वीरांदेवी (मेरे दादाजी की विधवा बहन) ने एक तरह से वैराग्य ले लिया और बड़े भाई हीरानन्द जी के पास मण्डी वारबर्टन में आकर रहने लगीं। वे महान् देशभक्त और पक्की आर्यसमाजिन थीं जिन्होंने मायके में वापस आने पर वहाँ स्त्री आर्यसमाज की स्थापना ही नहीं की थी, बल्कि उसका बड़ी सक्रियता से सञ्चालन भी करती थीं। परीक्षा पास करने की दृष्टि से उन्होंने केवल प्राइमरी तक शिक्षा पाई थी, लेकिन स्वाध्याय के बल पर उन्होंने सैकड़ों पुस्तकें पढ़ डाली थीं। कुछ स्वरचित और कुछ अन्य कवियों की रचनायें लेकर वीरांदेवी ने एक पुस्तक* भी प्रकाशित की थी। हिन्दी में रचित यह पुस्तक सचदेव परिवार का साहित्यिक क्षेत्र में पहला प्रयास था। वीरांदेवी ने अपने सारी जायदाद आर्यसमाज अनारकली लाहौर के नाम लिख दी थी।
इस पृष्ठभूमि में मेरी स्वर्गीया दादी श्रीमती दुर्गादेवी का नाम लेना भी अनिवार्य है जो स्वभावतः बड़ी धार्मिक, उदार एवं वात्सल्यमयी होने के साथ-साथ बड़ी अनुशासनप्रिय महिला थीं। यद्यपि उन्हें स्कूली शिक्षा उपलब्ध नहीं हुई, किन्तु अपने स्वाध्याय एवं श्रीमती वीरांदेवी की संगति में उन्होंने न केवल पढ़ना-लिखना सीखा, अपितु आजीवन अपने अत्यन्त मधुर कण्ठ से प्रभु-भक्ति एवं ऋषि दयानन्द की देन वाले ऐसे भजन गाती रहीं जिन्हें सुनकर श्रोताओं की आँखों में आँसू आ जाते थे।’ उल्लेखनीय है कि इन दोनों परम साध्वी, सुसंस्कृत और आर्य विचारधारा से ओत-प्रोत महिलाओं ने सचदेव परिवार को सदाचारी और संस्कारी बनाने में कोई कसर न छोड़ी। अपनी सन्तान को जिस प्रकार उन्होंने वैदिक आदर्शों के साँचे में ढाला, उसका सुफल अगली दो पीढ़ियों तक स्पष्ट झलकता है। मेरा परम सौभाग्य रहा कि मुझे ऐसे श्लाघ्य आर्य परिवार में जन्म मिला, जिसकी अकूत सम्पत्ति तो विभाजन के पश्चात् पीछे छूट गई, किन्तु उनके उदात्त वैदिक विचारों और श्रेष्ठ आचार की अक्षय निधि अभी भी हम सबके जीवन का पथ प्रशस्त कर रही है। अस्तु
सचदेव परिवार में वैदिक विचारधारा का यही प्रभाव आगे चलकर परिलक्षित होता है जब मेरे दादाजी को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी जिले में कस्बा बेवर स्थित बर्मा शैल की एजेन्सी मिली और हम लोग दिल्ली से उत्तरप्रदेश आ पहुँचे। ग्रामीण वातावरण में कन्याओं की शिक्षा के समुचित अवसर सुलभ न होने से मेरे माता-पिता ने मात्र दस वर्ष की आयु में कन्या गुरुकुल सासनी में मेरा प्रवेश करा दिया। शैशव में परिवार द्वारा बोये गये बीज को गुरुकुल में मानो अंकुरित होने के लिए अनुकूल वातावरण मिल गया और मेरे भावी जीवन की दिशा निर्धारित हो गई। मैंने केवल तीन वर्ष तक ही गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की, किन्तु वैदिक संस्कृति एवं संस्कृत भाषा के प्रति मेरा सुदृढ़ अनुराग हुआ कि यावज्जीवन कोई और रंग चढ़ने की ऐसा बद्धमूल सम्भावना ही न रही।
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