महापुराण में भारतीय वाङ्मय के लोक और शास्त्रीय रूप के समन्वय के सुन्दर कोष हैं। दार्शनिक पुराण साहित्य मानवचरित्र के लिए परंपराओं को ज्ञान-संबंधी खोज और साक्ष्य की कुंजी हैं। वायुपुराण पुराण में ‘यस्मात्पुरा हनतिदं पुराणं तेन तत्समृतम्’ और ब्रह्माण्डपुराण में ‘यस्नात्पुरा गृहच्चैतत्पुराणं तेन तत्समृतम्’ इस रूप में वर्णित हैं।’ सामान्यतः उपयोगिता संख्या 18 मानी गयी है। इनके नाम हैं- 1. ब्रह्मपुराण, 2. पद्मपुराण, 3. विष्णुपुराण, 4. शैवपुराण, 5. भागवतपुराण, 6. नारदपुराण, 7. मार्कण्डेयपुराण, 8. अग्रिपुराण, 9. भविष्यपुराण, 10. ब्रह्मवैवर्तपुराण, 11. लिंगपुराण, 12. वराहपुराण, 13. स्कन्दपुराण, 14. वामनपुराण, 15. कूर्मपुराण, 16. मत्स्यपुराण, 17. गरुड़पुराण और 18. ब्रह्माण्डपुराण। इन महापुराणों में मत्स्यपुराण की महत्ता का विश्वकोशीय स्वरूप बहुश्रुत है। यह स्टैटिक पुराणों द्वारा अनुमोदित लाइसेंस को प्रतिपादित नहीं करता है। ये लक्षण हैं सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर और वंशानुचरित –
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। राजवंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् ॥
विष्णुपुराण में प्रकारान्तर से कहा गया है-
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशमन्वंतराणि च। सर्वेश्वतेषु कथ्यन्ते वंशानुचरितं च यत् ॥
ये ही लक्षण किञ्चित् भेद से अन्य अनेक पुराणों में उपलब्ध हैं। श्रीमद्भागवत ने महापुराणों के दस लक्षण बताए हैं- सर्गश्वाथ विसर्गश्च वृत्त रक्षान्तराणि च। वंशो वंशानुचरितं संस्थाएरपाश्रयः ॥ इस प्रकार के लक्षण उत्तरकाल में विकसित होते जाते हैं। मूल पंचम लक्षण आगे दस की संख्या में मिलते हैं। पुराणों का स्वरूप भी स्थिर नहीं रहा, वैष्णवपुराण शैव प्रभाव को ग्रहण किया गया तो संहिताबद्ध पुराण खंडात्मक स्वरूप वाले हो गये। स्कन्दपुराण कुल के गोत्र, प्रवरादि पुराणों के विषयों को भी ग्रहण करते हैं।
भगवान विष्णु के मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, नरसिंह आदि अवतारों के नाम पर कुछ पुराणों में लिखे गए भगवान शिव के महात्म्य का भी सत्य रूप में दर्शन होता है। पुराणों का यही सहिष्णुतापूर्ण स्वरूप हमारी संस्कृति में समन्वयवाद का प्रभाव स्पष्ट होता है। इसी कारण वे ज्ञान, यश, आयुष्यादि के पोषक रहते हैं। मत्स्यपुराणकार का स्पष्ट मत है- पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुरबुधाः। धन्यं यशस्तमानुष्यं पुराणामनुक्रमम्।
यः पथेच्छनुयाद वापि सः याति परमां गतिम्॥ इनमें युगपेक्षाओं और जनोपयोग सम्मत विषयों की सर्वदृष्टि उपयोगी सिद्ध का प्रयास भी सामने रखा गया है। इसी कारण पार्वतीं पुराणों का स्वरूप विश्वकोशात्मक बन सका। अग्रि और बहिपुराण, मत्स्यपुराण, बृहदीयपुराण, विष्णुधर्मपुराण आदि इसके अनूठे उदाहरण हैं।
गुणानुसार पुराणों का वर्गीकरण :
पुराणों में उल्लेखित पौराणिक कथाओं के साथ उनके सत्त्ववादी गुण खंड को बढ़ावा दिया जाता है। छ: पुराण- मत्स्यपुराण, कूर्म, लिंग, शिव, स्कन्द एवं अग्रि पुराण तमस कोटि के रिकार्ड रखे गए हैं; ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, भविष्य, वामन एवं ब्रह्म नामक छः पुराण राजस या मध्यम कोटि और विष्णु, नारद, भागवत, गरुड़, पंच और वाराह ये छः पुराण सात्विक वर्ग के समीचीन कोटि माने गये हैं। यह देव के प्राकृत-स्वरूप के अनुसार किया गया है। इसी प्रकार गरुड़पुराण में सात्विक पुराणों को भी अधमादि तीन प्रकार की कोटियों में स्वीकार किया गया है- सात्विक मध्यम, सात्विक उत्तम। प्रथम कोटि के अंतर्गत मत्स्य व कूर्म पुराणों को लिया गया है, द्वितीय कोटि में वायु और तृतीय सात्विकोत्तम कोटि के अंतर्गत विष्णु, भागवत और गरुड़पुराण को रखा गया है: सत्वधामे मत्स्य कौर्म तदाहुर्वयं चादुः सात्विकं मध्यमं च। विष्णु पुराणं भागवतं पुराणं सत्वोत्तमै गरुड़ं प्राहुरार्यः ॥ मत्स्यपुराण विषय वस्तु के आधार पुराणों की तीन कोटियाँ हैं- सात्विक, राजस और तामस। सात्विक पुराणों में भगवान विष्णु के महात्म्य का वर्णन है, राजस में सृष्टिकर्ता पितामह ब्रह्मा और तामम पुराणों में संहार के देवता शिव का महत्व बताया गया है:
सात्त्विकेषु पुराणेषु महात्म्यमधिकं हरेः। राजसेषु च महात्मधिकं ब्रह्मणो विदुः ॥ तद्दग्रेच महात्म्यं तामसेषु शिवस्य च। सङ्किर्णेषु सरस्वत्याः पितृणां च निगद्यते॥
ऐसे में मत्स्य लक्षणात्मक कोटि का पुराण है। इसकी सामग्री पूर्ववर्ती वायुपुराण और ब्रह्माण्डपुराण से प्रेरित ज्ञात होती है तथा इसी कारण यह उक्त दोनों पुराणों का आश्रयवर्ती ग्रन्थ है। अपने नामानुसार यह विष्णु के मत्स्यावतार के नामाभिधान और वेदोद्धारक कथा-प्रसंग, माहात्म्य, दानादि को प्रतिष्ठापित करता है। साथ ही इसमें आई पितृगाथा में पितरों द्वारा वंशजों से की गई अपेक्षा के अन्तर्गत विष्णु की शरण के भाव लक्षित है- अपि स्यात् स कुलेस्माकं सर्वभावेन यो हरिम्, प्रयायाच्छरणं विष्णु देवेशं मधुसूदनम्। लक्ष्मी की कामना रखने वाले से विष्णु कलश के जल से यजमान को स्नान करवाने की निर्देश बताया है। साथ ही इसमें आए वास्तुविधान श्रीहरिप्रोक्त कहे गए हैं- आयाधिके भवेच्छान्तिरित्याह भगवान् हरिः।
इसके वावजूद इसमें शैवमतानुमत सामग्री का प्राचुर्य होने से यह शैव पुराणों की कोटि में गिना जाता है। इसमें उच्छिष्ट, रस-रसायन, खड्ग, अंजन, पादुका और विवरसिद्धि जैसे शिव आराधकों के प्राथमिक चिह्न बताए गए हैं और यम, नियम, यज्ञ, दान, वेदाभ्यास, धारणा और योगादि से शिवाराधना का सफलता बताई गई है। शिव के ‘करुणाभ्यदय स्तोत्र’ से चिरस्थायी लक्ष्मी की कामना की गई है।
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