पुस्तक का नाम – मीरपुरी –सर्वस्व
लेखक – पंडित बुद्धदेव मीरपुरी
पंडित बुद्धदेव मीरपुरी जी आर्यसमाज के प्रतिष्ठित शास्त्रार्थ महारथी थे |
इन्होने अनेक खोजपूर्ण ,वैदिक सिद्धांतो के पोषक ग्रंथो का निर्माण भी किया | उनके निर्माण किये हुए कुछ ग्रंथो का संकलन इस पुस्तक में है |
जो निम्न है –
षडदर्शन समन्वय – महर्षि दयानंद जी के भारतीय रंगमंच पर अवतीर्ण होने से पूर्व यह प्रवाद प्रचलित था कि दर्शनों में विरोध है | महर्षि ने इस भ्रान्ति का खंडन किया ,परन्तु उनके पास इतना समय नही था कि वे इस पर एक स्वतंत्र ग्रन्थ लिख पाते | पंडित बुद्धदेव मीरपुरी जी ने यह ग्रन्थ लिखकर समन्वय का अवरुद्ध मार्ग खोल दिया | आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान् स्वामी वेदानन्द तीर्थ और मुक्तिरामजी ने इस पुस्तक की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी |
मूर्तिपूजा मीमांसा – इसमें पंडित जी ने वेद और पुराणों से यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा नही करनी चाहिए | मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में जितने तर्क दिए जाते है उनका युक्ति युक्त समाधान प्रस्तुत किया गया है |
अवतार वाद मीमांसा – इसमें वेद ,रामायण , महाभारत और पुराणों से यह सिद्ध किया गया है कि ईश्वर अवतार नही लेता |
इसके अतिरिक्त अन्य आठ ट्रेक्ट निम्न है –
१ विवाह
२ मृतक श्राद्ध खंडन
३ धाया का दूध
४ पुत्र परिवर्तन वैदिक है |
५ गर्भाधान और योनि संकोचन
६ वेदभाष्य
७ नियोग और पौराणिक धर्मी
८ पौराणिक ईश्वर की पड़ताल
इन सभी लेखो से जिज्ञासु पाठक को अवश्य लाभ होगा |
✍🏻 पं० बुद्धदेव मीरपुरी
☀️ ग्रंथ परिचय ☀️
पं० बुद्धदेवजी मीरपुरी आर्ष परम्परा के चिन्तक – विचारक थे । आपने कुछ पुस्तकें लिखीं । हमें जितनी उपलब्ध हो सकीं , वह पूज्य स्वामी श्री जगदीश्वरानन्दजी सरस्वती की स्नेहमयी कृपा से सुसज्जित सुव्यवस्थित आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं ।
पूर्वकाल में थोड़ा – सा पाप हुआ तो भगवान् ने अवतार लेकर पाप व पापी का नाश किया , लेकिन अब जितना पाप हो रहा है , क्या उसके नाश व धर्मस्थापना के लिए वह अवतार नहीं लेगा ? छह दर्शन हमारी वैदिक परम्परा की थाती हैं जो विदेशी षडयन्त्र के अन्तर्गत परस्पर विरोधी व अमान्य सिद्ध किये गये । महर्षि दयानन्द की मान्यता रही कि यह ईश्वरवादी व एक – दूसरे के पूरक और समर्थक हैं । यही बात पूज्य पण्डितजी ने प्रमाणित की है । इस पुस्तक में संग्रहीत सामग्री हमारे ज्ञानवर्धन के लिए भोजन तो है ही , साथ ही यह सन्देश भी है कि ऋषि की वेदोक्त मान्यताओं के लिए अभी बहुत कुछ करना शेष है ।
☀️ विषय सूची ☀️
जीवन – यात्रा
पषड्दर्शन – समन्वय
मूर्तिपूजा – मीमांसा
अवतारवाद मीमांसा
वैदिक भक्ति – स्तोत्र
नियोग और पौराणिक धर्मी
पौराणिक ईश्वर की पड़ताल
विवाह
मृतक श्राद्ध खण्डन
पुत्र परिवर्तन वैदिक है
धाया का दूध
गर्भाधान और योनि – संकोच
वेदभाष्य शास्त्रार्थ महारथी पं० श्री बुद्धदेव मीरपुरी
☀️ भूमिका ☀️
श्री स्वामी दयानन्दजी महाराज ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है
‘ परन्तु विरोध उसको कहते हैं कि एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्धवाद होवे । छह शास्त्रों में अविरोध देखो इस प्रकार है मीमांसा में – ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिसके बनाने में कर्मचेष्टा न की जाए । वैशेषिक में — ‘ समय न लगे बिना बने ही नहीं ‘ । न्याय में — ‘ उपादानवकारण के न होने से कुछ भी नहीं बन सकता ‘ । योग में — ‘ विद्या , ज्ञान न हो और विचार न किया जाए तो नहीं बन सकता ‘ । सांख्य में — ‘ तत्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता ‘ और वेदान्त में — ‘ बनानेवाला न बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सके ‘ । इसलिए सृष्टि छह कारणों से बनती है । उन छह कारणों की व्याख्या एक – एक की एक – एक शास्त्र में है । इसलिए उनमें विरोध कुछ भी नहीं । ‘ ‘ सत्यार्थ० ८ , पृ० १४१
इस लेख में महर्षि ने छहों दर्शनों की एकता को बड़े स्पष्ट और बलपूर्वक स्वीकार किया है । सहस्रों वर्षों से आर्यावर्त में इस बात का विरोध चला आता था कि दर्शनों में मतभेद है । सैकड़ों ग्रन्थ लोगों ने इस विरोध को पुष्ट करने के लिए लिखे । यहाँ तक कि अकेले वेदान्तदर्शन ही से द्वैतवाद , अद्वैतवाद , शुद्धाद्वैतवाद – द्वैताद्वैतवाद , विशिष्टाद्वैतवाद आदि अनेक सिद्धान्त बना डाले ।
ऐसे भीषण समय में महर्षि दयानन्द का ही कार्य था , जिन्होनें इस बात की घोषणा की कि दर्शनों में कोई भी विरोध नहीं है । यह महर्षि का मनुष्यजाति पर इतना बड़ा उपकार है कि इसको कभी भी भूल नहीं सकते । यदि महाराज का शरीर रहता तब अवश्यमेव महाराज इस अतिगहन विषय पर विस्तार से अपने पुनीत विचार प्रकट करते , किन्तु यह सम्पूर्ण संसार का अभाग्य है कि महर्षि समय से पूर्व ही परलोक सिधार गये । इससे यह महान् कार्य अधूरा ही रह गया । आधुनिक दार्शनिक सम्प्रदाय में अनेक मतभेद पाये जाते हैं , सांख्य तथा मीमांसा में परमात्मा को नहीं माना , न्याय तथा वैशेषिक में परमाणुओं को संसार का उपादानकारण माना है । योग तथा सांख्य में प्रकृति को संसार का उपादानकारण माना है । वेदान्त में ब्रहा को संसार का अभिन्ननिमित्तोपादनकारण माना है । वेदान्त जीव को ब्रह का विकार मानता है , वेदान्त जीव को ज्ञानस्वरूप मानता है , न्याय में जीव को जड़ , अर्थात् उसमें आत्मा तथा मन के संयोग से ज्ञान गुण उत्पन्न होता है , ऐसा माना है । वेदान्त जीव को अकर्त्ता , उभोक्ता मानता है , इत्यादि अनेक मतभेद पाये जाते हैं । यदि ऐसे मौलिक भेद दर्शनों में स्वीकार किये जाएँ तो दर्शन किसी भी कार्य के नहीं ठहर सकते । जब सब दर्शनकार परमात्मा के बनाये वेदों को प्रमाण मानते हैं तब यह कैसे हो सकता कि उनमें इतना बड़ा मौलिक भेद हो । इसलिए इस पुस्तक में प्रत्येक विषय पर सप्रमाण विस्तार से यह सिद्ध किया जाएगा कि दर्शनों में कोई भी मतभेद नहीं है और मतभेद माननेवालों की सम्यतया आलोचना की जाएगी । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस विषय पर अत्यन्त अन्वेषण की आवश्यकता है । मेरी इस पुस्तक से अन्वेषण का मार्ग खुल जाएगा ।- बुद्धदेव मीरपुरी
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