भूमण्डल के साहित्य में वेद ही सबसे प्राचीन साहित्य है । प्रार्य जाति को दृष्टि में इसका बड़ा गौरव है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने लिखा है – “ब्राह्मरणेन, निष्कारणः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च ।” अर्थात् ब्राह्मण को निष्कारण छहों श्रङ्गों सहित वेद का अध्ययन करना चाहिये और उसका अर्थ भी जानना चाहिये । याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है
पुराण-न्याय-मीमांसा – धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।
वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश | अर्थात् पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, शिक्षा, कल्प, व्याकररण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष और ऋग्, यजुः, सान, श्रौर प्रथर्व ये चार वेद – ये चौदह विद्या और धर्म के स्थान हैं। इनमें चार वेद ही मुख्य हैं। पुराण, न्याय आदि वेदार्थ का स्पष्टीकररंग करने में ही सहायक होते हैं ।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति । – अर्थात् थोड़े पढ़े लिखे व्यक्ति से वेद डरता है कि कहीं यह मुझ पर प्रहार न कर दे । वेद पर प्रहार करने का तात्पर्य यही है कि उसके ( वेद के ) अर्थ को ठीकठोक न समझता, अभिप्राय से विपरीत अर्थ कल्पना करना । वेद में धर्म और ब्रह्म का ही निरूपण है। मनु ने लिखा है – “वेदोऽखिलो धर्ममूलम्” श्रीर गीता में लिखा है “वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः” । दोनों का तात्पर्य यह है कि समस्त वेद धर्म का मूल है. धर्मज्ञान वेद से ही हो सकता है, मन्वादि धर्मशास्त्र वेदोक्त धर्म का ही विधान करते हैं । समस्त वेदों के द्वारा प्रात्मा अथवा ब्रह्म ( ग्रहमेव) हो वेद्य है । विना वेदज्ञान के प्रात्मज्ञान प्रयदा ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता । विना प्रात्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान के सर्वदुःखात्यन्तनिवृत्तिरूप मोक्ष नहीं मिल सकता । – तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति,
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय || अर्थात् ब्रह्मज्ञान से ही मृत्यु से छुटकारा (मोक्ष) मिल सकता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है ।
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