दार्शनिक चिन्तन की परम्परा भारतीय संस्कृति और सभ्यता की आत्मा रही है, इस लिए यदि यह कहा जाय कि भारतीय दर्शनशास्त्र का अध्ययन किये बिना भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अन्तःस्तल में प्रवेश करना सम्भव नहीं है तो अनुचित न होगा। भारतीय दर्शन की आत्मा तक पहुँचने के लिए न्यायदर्शन का अध्ययन विशेषतः उसकी उत्कृष्ट प्रमाण-मीमांसा पद्धति के कारण, नितान्त उपयोगी है। दर्शनशास्त्र का लक्ष्य तत्त्वयथार्थज्ञान है, और न्यायदर्शन उसके लिए एक सुदृढ़ आधार, विधि व साधन प्रदान करता है तथा न्यायप्रमाणमीमांसा उन विधियों, सिद्धान्तों व नियमों की विशद व्याख्या कर ज्ञानप्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करता है, अतः भारतीय दर्शन के ज्ञान के लिये न्यायप्रमाणमीमांसा पद्धति का ज्ञान निशासमय में अरण्यप्रवेश के लिए आलोक-दर्शन के समान परोपकारी है।
किन्तु इतना महत्त्वपूर्ण विषय होते हुए भी उसके ज्ञान के लिए जन साधारण की भाषा में न्यायप्रमाणसिद्धान्तों के प्रतिपादक ग्रन्थों का सर्वथा अभाव है। संस्कृत ग्रन्थों में यद्यपि इस विषय का पर्याप्त वर्णन विद्यमान है, किन्तु उनके अत्यन्त क्लिष्ट भाषा में होने तथा श्रृंखलाबद्धरूप में न होने के कारण विषय सुगम नहीं है। अतः इस अभाव को ध्यान में रखते हुए हिन्दी भाषा में न्यायप्रमाणसिद्धान्तों की व्याख्या प्रस्तुत करने के विचार मेरे मन में उत्पन्न हुए। यह पुस्तक इन्हीं विचारों की देन है।
अस्तु, प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य यत्र-तत्र बिखरे हुए न्याय-प्रमाण-सिद्धान्तों का संकलन कर उन्हें श्रृंखलाबद्धरूप में सरलभाषा में प्रकट करने का है। इसमें मुझे कितनी सफलता व असफलता मिली है, विद्वज्जन ही प्रमाण हैं
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