ग्रन्थ का नाम – न्यायदर्शन
भाष्यकार – आचार्य उदयवीर शास्त्री
न्यायदर्शन के आदि प्रवर्त्तक महर्षि गौतम हैं। महर्षि गौतम से पूर्व का कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं है जिसमें तर्क, प्रमाण, वाद आदि का नियमबद्ध विवेचन हो। इस ग्रन्थ में पाँच अध्याय है। प्रत्येक में दो-दो आह्निक हैं और 538 सूत्र हैं। प्रथम अध्याय में उद्देश्य तथा लक्षण और अगले अध्यायों में पूर्वकथन की परीक्षा की गयी है।
‘न्याय’ शब्द का अर्थ है कि, जिसकी सहायता से किसी निश्चित सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसी का नाम ‘न्याय’ है।
न्यायदर्शन को मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है –
१. सामान्य ज्ञान की समस्या को हल करना।
२. जगत् की पहेली को सुलझाना।
३. जीवात्मा तथा मुक्ति।
४. परमात्मा और उसका ज्ञान।
उपर्युक्त समस्याओं के समाधान के लिए ‘न्याय’ दर्शन ने प्रमाण आदि सोलह पदार्थ माने हैं। न्याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रमाण है।
इस दर्शन में जीव, ईश्वर के अस्तित्व पर अनेको तर्क उपस्थित किये हैं। पुनर्जन्म और कर्मफल की मीमांसा की गयी है। वेद की अपौरुषेयता को सिद्ध किया गया है। हैत्वाभास और निग्रहस्थानों का इस शास्त्र में उल्लेख है।
प्रस्तुत् भाष्य आचार्य उदयवीर शास्त्री जी द्वारा किया गया है। यह भाष्य आर्यभाषानुवाद में होने के कारण, उनके लिए भी लाभकारी है, जो संस्कृत का ज्ञान नहीं रखते हैं। इस भाष्य में प्रत्येक सूत्र का शब्दार्थ पश्चात् विस्तृत व्याख्या है। इस भाष्य में न्याय प्रतिपादित तत्वों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है।
यह भाष्य विद्वानों से लेकर साधारणजनों तक के लिए सुबोध एवं रुचिकर होने से सभी के लिए समान रुप से उपादेय है।
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