यह पाठकों के समक्ष योगदर्शन तथा व्यासभाष्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए जहाँ हमें हार्दिक-प्रसन्नता एवं आत्म-सन्तोष हो रहा है, वहाँ पाठकों को भी योगदर्शन की इस अपूर्व व्याख्या से अवश्य ही प्रसन्नता होगी, ऐसी हमें आशा है। मानवजीवन का चरम लक्ष्य है- ‘दुःखों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करना, प्रकृति के चिरबन्धन से छूटकर परमात्मा के परमानन्द की अनुभूति करना और अज्ञान व मिथ्या ज्ञान की कलुषित, भ्रान्त तथा घोरान्धकार की दशाओं से छूटकर पवित्र ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करके सत्य की प्राप्ति करना है।’ इस उद्देश्य की पूर्ति दर्शन-विद्या के विना नहीं हो सकती। आज की विषम परिस्थितियों में मानव कितना भ्रान्त हो चुका है और उसके अशान्त, भ्रान्त एवं क्लेशों में निमग्न अन्तःकरण के पटल पर अंकित कलुषित वासनाओं को दूर करने तथा मानवजाति की दुर्दशारूप जटिल समस्या का क्या समाधान हो सकता है? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द ने कहा है-
“यदि मुझसे कोई पूछे कि इस पागलपन का कोई उपाय भी है या नहीं? तो मेरा उत्तर यह है कि यद्यपि रोग बहुत बढ़ा हुआ है, तथापि इसका उपाय हो सकता है। यदि परमात्मा की कृपा हुई तो रोग असाध्य नहीं है। वेद और छः दर्शनों की सी प्राचीन पुस्तकों के भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनुवाद करके, सब लोगों को जिससे अनायास प्राचीन विद्याओं का ज्ञान प्राप्त हो सके, ऐसा यत्न करना चाहिये।…….सुगमता से शीघ्र लोगों की आँखें खुल जायेंगी और दुर्दशा दूर होकर सुदशा प्राप्त होगी”।
(उपदेश-मञ्जरी, १३वाँ उपदेश)
महर्षि के ये अमूल्य वचन ही प्रस्तुत भाष्य के प्रेरक बनें हैं। आर्ष-साहित्य प्रचार ट्रस्ट के संस्थापक स्व० श्री लाला दीपचन्द जी आर्य ने जब ये वचन पढ़े तो उनके हृदय में पूर्व से विद्यमान आर्ष-ज्ञान के प्रति दृढ़ विश्वास के अंकुरों को मानों सञ्जीवनी अमृत-वर्षा मिलने से अपूर्व-शक्ति प्राप्त हुई और यह निश्चय किया कि दर्शनों की विद्या को जन-साधारण की भाषा में प्रकाशित कराया जाये।
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