प्राक्कथन
ऋग्-यजुः-साम-अथर्व नाम से चार वेद हैं, इनमें साम का स्वरूप निस प्रकार है
6 4 १. ‘साम’ ‘ शब्द “सातिभ्यां मनिन्मणिनौ” (उणादि० ४.१५३) सूत्रानुसार “षो अन्तकर्मणि” (दिवादि०) धातु से बना है। ‘कर्मणोऽन्तः-अन्तकर्म’ कर्म का अन्त ‘अन्तकर्म” कहलाता है। ‘स्यति कर्मान्तमेति’-कर्मान्तस्वरूप साम हुआ। ऐसा निरुक्त में पक्षान्तर से कहा है “स्यतेर्वा” (निरु० ७.१२)।
– 4 6 २. ज्ञान, कर्म, उपासना वेदत्रयी-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के विषय इससे सामवेद उपासनावेद है, यही अन्तकर्म-कर्मान्तस्वरूप उपासना है साम है। “देवाः सोमं दिवः साम्ना समानयन् तत्साम्नः सामत्वम्’ (तै० सं० २.२.८.७) मुमुक्षु महानुभाव साम अर्थात् उपासना द्वारा द्योतनात्मक मोक्षधाम से सोमआनन्दरसरूप परमात्मा को हृदय में ले आए। शब्द तथा अर्थ की दृष्टि से ‘सामन्’साम है ‘समानयन्’ में (समान्-अयन्) पुनः ‘अयन्’ क्रियारूप को पृथक् कर देने से ‘समान्’ के अन्तिम दीर्घ आकार को आदि में ‘स’ के साथ ‘सा’ रूप में देखने से ‘सामन्-साम’ हो गया, यह अल्पभेद से शब्दसाम्य में अर्थप्रधान निरुक्ति है।
‘साम’ शब्द बनाया है “अस्यते….” (निरु० ७.१२) ‘अस्तमृचि’ ऋचा में ऋग्वेद के मन्त्र में क्षिप्त रखने से साम है। सामवेदीय उपनिषद् में कहा भी है “ऋच्यध्यूढं साम गीयते (छान्दो० १.६.१) ऋचा में आश्रित साम गाया जाता है। ‘सा-ऋक् मन्त्र’ और अम-साम मन्त्र’ दोनों मिलकर ‘साम’।”प्राणो वा अमो वाक् सा तत् साम’ (जै० उ० ४.२३.३) वाक्-जप ‘सा’ है, प्राण-अर्थसहित जपानुभव ‘अम’ है “तज्जपस्तदर्थभावनम्” (योगदर्शन १.२८) ओ३म् का जप और अर्थानुभव ही साम है। 66 4 ” 4
३. निरुक्त में पक्षान्तर से “असु क्षेपणे” (दिवादि०) से
४. पक्षान्तर से निरुक्त में “समं मेने साम” (निरु० ७.१२) सम-समान अर्थात् ईश्वर के गुणकर्म के समान अपने गुणकर्मों को मैं अनुभव करूँ ऐसा उपास्य के गुणकर्मों का उपासक में आ जाना भी साम है “तेजोऽसि तेजो मयि धेहि” (यजु० १९.९) परमात्मन् तू तेज:स्वरूप है मुझमें तेज धारण करा । तथा “यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा घा स्या अहम्। स्युष्टे सत्या इहाशिषः” (ऋ० ८.४४.२३) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! जबकि मैं तू हो जाऊँ और तू मैं होजा तो तेरे आशासन-आदेश और हितकामनाएँ इस जीवन में जावें । लोहे का गोला जैसे अग्नि के प्रखरताप से अग्नि जैसा लाल या प्रकाशमान हो जाता है ऐसा ही ‘समं मेने’ साम है।
५. यद्यपि चारों वेदों का मुख्य प्रतिपाद्यत्व परमात्मा में स्वामी दयानन्द ने प्रदर्शित किया है जैसा कि कठोपनिषद् में भी घोषित किया है “सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति….तत् ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्’ (कठो० १.२.१५) सारे वेद ओ३म्’-ब्रह्म परमात्मा को कहते हैं लक्षित करते हैं, और फिर सामवेद का लक्ष्य तो परमात्मा ही है, कहा भी है “ऋग्भिः शंसन्ति यजुर्भिर्यजन्ति सामभिः स्तुवन्ति” (निरु० १३.७) अर्थात् ऋग्वेद के मन्त्रों से शंसन करते हैं यजुर्वेद के मन्त्रों से यजन-यज्ञ करते हैं और सामवेद के मन्त्रों से स्तवन-स्तुति करते हैं। साम के गाने का वर्णन आता है “उभे वाचौ वदति सामगा इव। गायत्रं त्रैष्टुभं चानुराजति। उद्गातेवशकुने साम गायति।” (ऋग्वेद २.४३.१-२) इन वचनों में सामगान लक्षित है। साम गाना है, प्रत्येक गाने को साम नहीं कहते और न यह कि साममन्त्र केवल गाना ही है अपितु परमात्मा की स्तुतिरूप गाना साम है, जैसे लोक में भजन बोलो या भजन गाओ’ कथन में ‘भजन’ गाने को कहते हैं परन्तु प्रत्येक गाने को भजन नहीं कहते हैं, अपितु ईश्वर स्तुति जिसमें हो ऐसे गाने का नाम भजन लक्षित है। भजन-भक्ति’ एकार्थक शब्द है। यही बात छान्दोग्योपनिषद् में कही है “ऋच्यध्यूढं सामगीयते” (छान्दो० १.६.१) ऋच्-स्तुति में अधिष्ठित सामगान कहलाता है “ऋच् स्तुतौ” (तुदादि०) स्तुतिशून्य गाना साम लक्षित नहीं अपितु स्तुति ही गान-परमात्मगान साम है। अत: साममन्त्रों में परमात्मा से भिन्न वस्तुओं का गुणवर्णन या यजन याग-होम प्रकार को देखना उनसे यज्ञ हवन करना सामवेद के लक्ष्य से बाहिर की बात है अन्यथा व्यवहार है। केवल परमात्मा की चर्चा करना सामवेद का ध्येय है अतएव सामवेद का महत्त्व अधिक है इस बात को ऋग्वेद में स्पष्ट किया है “यूयमृषिमवथ सामविप्रम्” (ऋ० ५.५४.१४) अर्थात् हे लोगो! तुम सामवेद के ज्ञाता ऋषि की रक्षा करो, उससे प्रीति करो, उसे तृप्त करो, उससे श्रवण करो, उसे अपना स्वामी- अध्यक्ष बनाओ “अव रक्षणप्रीतितृप्तिश्रवणस्वाम्यर्थ…..” (भ्वादि०) स्वामी दयानन्द ने भी सामवेद को उपासना का वेद बतलाया है। ज्ञान, कर्म, उपासना वेदत्रयी का विषय कहा है
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