पुस्तक का नाम – सन्ध्यायोग ब्रह्म साक्षात्कार
लेखक का नाम – जगन्नाथ पथिक
जीवनमात्र के अन्तःकरण में अनादिकाल से पैठी क्लेशमात्र के लिए ‘घृणा’ और अक्षय सुख पाने की कामना, बुद्धि प्रधान मनुष्य जन्म पाकर स्वभावतः उभर आती है, अतः प्रत्येक मानव क्लेशों से छुटकारा पाने के लिए छटपटाता और आनन्दमयी अक्षय शान्ति पाने के लिए कटिबद्ध दीखता है, किन्तु उसके हाथ प्रायः असफलता ही लगती है। यतः निसर्गतः प्रवाहित काम – क्रोधादिक विषय विकारों से प्रताड़ित होकर किये गये उसके अहंभाव लिप्त अनृत पिधान क्लिष्ट – कर्म ताप-त्रय को ही उपजाते हैं। अतः मानव को फल विपाक के रूप में कष्ट ही भोगना पड़ता है, जो यत्किञ्चित सुख उसे इस भोगात्मक जगत में मिलता भी है, वह क्लेश मिश्रित होने से अन्तः शान्ति प्रदान नहीं कर पाता।
सृष्टि के आदि में सर्वज्ञ करुणानिधि भगवान् ने मानव मात्र को इस अनागत – आपत्ति से सचेत करते हुए वेदों में उन दिव्य साधनों का उपदेश दे दिया, जिन्हें निज जीवन में चरितार्थ कर लेने पर मनुष्य अपने क्लेश कर्मों को समूल नष्ट करके परमानन्दमय अक्षय शान्तपद मोक्ष को हस्तगत कर सकता है। पुराकाल में तपः पूत ऋषिजनों ने उनमें से कतिपय साधनों का चयन करके मानव मात्र के लिए उन्हें सुकर बनाते हुए ब्रह्मयज्ञ अथवा वैदिक सन्ध्या के नाम से प्रसिद्ध करके प्रातः सायम् उसके अनुष्ठान का विधान भी किया। वह ‘साधन समुच्चय’ अष्टाङ्ग योग की वैज्ञानिक साधना द्वारा शीघ्र सिद्ध हो जाता है और साधक को समग्र ताप – त्रय से विमुक्त कर देता है, तदन्तर भूतजयी बना यह उपासक जड़ प्रकृति पर विजय पा लेता है फलतः उसके क्लेश कर्म मूलतः नष्ट हो जाते हैं और अध्यात्म आलोक द्वारा शाश्वत – ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरं’ को पाकर वह प्राकृतिक कारा से मुक्त हुआ उस जीवन्मुक्ति का निवासी बन जाता है, जहाँ शोक – मोह, भय – क्लेशमात्र का स्पर्श भी नहीं है।
उसी साधना – समुच्चय को सिद्ध कर देने वाली तर्कसिद्ध, क्रमबद्ध क्रियात्मक अष्टांग योग प्रोक्त पद्धति का विस्तारपूर्वक वर्णन ‘सन्ध्या -योग’ ग्रन्थ में है। इसका सतत स्वाध्याय तथा श्रद्धा से मनन – निदिध्यासन करते – करते उपासक को स्वरूप का दर्शन और उस सर्वज्ञ, करुणाघन, परमगुरू पुरुषोत्तम का साक्षात्कार होकर दिव्य उन्मुक्त जीवन प्राप्त हो जाता है। इस भाँति दिव्य – जीवन – प्राप्त मानव परम आनन्दघन भगवान् का प्रकाश पाकर धन्य और सफल हो जाता है।
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