Vedrishi

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सांख्यकारिका

Sankhyakarika

150.00

Subject : Sankhyakarika
Edition : 2023
Publishing Year : 2023
SKU # : #N/A
ISBN : N/A
Packing : Paperback
Pages : 205
Dimensions : 14X22X6
Weight : 267
Binding : Paperback
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भारतीय दर्शनशास्त्र में सांख्यदर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है, साथ ही इस दर्शन के उपलब्ध सम्पूर्ण साहित्य में ईश्वर कृष्ण विरचित सांख्यकारिका अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। श्रीमद्भगवद्गीता के समान ही यदि इसे भारतीय दर्शन वाङ्गय की विलक्षण कृति कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसलिए अनेक विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में इसे रखा गया है। मात्र ६० कारिकाओं के अपने लघु कलेवर में एक विशेष दृष्टि से सभी दार्शनिक समस्याओं पर सर्वांगीण एवं गम्भीर चिन्तन का इसमें सफल प्रयास हुआ है। यही कारण है कि इस पर अनेक विद्वान् मनीषियों द्वारा टीकाएँ, प्रटीकाएँ एवं भाष्य किए गये और आज भी किए जा रहे हैं। जिनका उद्देश्य सांख्यदर्शन के इस महत्त्वपूर्णग्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्तों को सरलतापूर्वक जिज्ञासु पाठक को हृदयंगम कराना है।

इतनी व्याख्याओं के उपलब्ध होने पर भी इस ग्रन्थ को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अभी और भी बहुत कुछ इसकी व्याख्या में सरल, किन्तु नूतन शैली में कहा जाना शेष है, यही जिज्ञासा एवं इच्छा प्रस्तुत कृति के प्रणयन में सहायक रही है।

अपने विद्यार्थी-जीवन से लेकर गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से १९८२ में प्रारम्भ किए गए अध्यापनकाल से मेरी उत्कट अभिलाषा रही कि मैं इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या नूतन किन्तु सरल शैली में प्रस्तुत करूँ। उस परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकम्पा से आज यह सुयोग प्राप्त हुआ कि मेरा यह लघु एवं विनम्र प्रयास विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत है।

किसी भी विषय को यदि चित्रात्मक ढंग से समझाया जाए तो निश्चय ही विषय को समझने में सौकर्य रहता है। यही कारण है कि इस पुस्तक में प्रत्येक कारिका के भाव को, अभिप्राय को चित्रित करके ‘डायग्राम’ बनाकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह प्रस्तुति कितनी सफल है, इसका निर्णय तो विद्वगण एवं कोमलबुद्धि छात्र ही करेंगे, किन्तु यदि इस शैली द्वारा छात्रों को विषय समझने में थोड़ी भी सरलता प्रतीत होती है, तो मैं इसे अपना सौभाग्य

समहूँगा।

सांख्यकारिका की संस्कृत व्याख्याओं में ‘तत्त्वकौमुदी टीका’ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, उसे दिए जाने से निश्चय ही पुस्तक की उपयोगिता में वृद्धि होती, किन्तु ऐसा करने पर पुस्तक के कलेवर में अत्यधिक वृद्धि होती, जिससे पुस्तक का मूल्य भी प्रभावित होता और छात्रों को इसे खरीदने में कठिनाई का अनुभव होता, फिर ‘तत्त्वकौमुदी’ पर स्वतन्त्ररूप से अनेक टीकाएँ उपलब्ध भी हैं, यद्यपि उसकी भी और अधिक सरल शैली में प्रस्तुति सम्भव है। अतः यहाँ ‘तत्त्वकौमुदी टीका’ को प्रस्तुत नहीं किया गया है। आशा है एतदर्थ विद्वगण क्षमा करेंगे।

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