संस्कृत व्याकरण की परम्परा अत्यन्त समृद्ध है। ऐतिह्यानुशीलन से पाणिनि पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों का परिचय मिलता है। पाणिनि, कात्यायन एवं पतञ्जलि ने इस समग्र परम्परा को नूतन आयाम दिया। मुनित्रय ने अपने अलोकसामान्य एवं अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण रचना प्रबन्ध से मानव जाति को उपकृत किया। आज त्रिमुनि के अभाव में संस्कृत के स्वरूप की कल्पना भी असम्भव प्रतीत होती है। इस युग को इतिहासकार ‘पाणिनि युग’ के नाम से स्मरण करते हैं।
पाणिनि युग के पश्चात् दो स्वतन्त्र धाराएं विकसित हुई। जिन्हें क्रमशः पाणिनि परवर्ती व्याकरण एवं प्रक्रिया ग्रन्थ के रूप में जाना जाता है। इनके आविर्भाव से संस्कृत व्याकरण की परम्परा में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। इनका विकास आकस्मिक नहीं था।
साधारणजनों के लिए पाणिनि, कात्यायन एवं पतञ्जलि के अतिविस्तृत तन्त्र को बुद्धिसात् करना सम्भव नहीं था। अतः कातन्त्र प्रभृति व्याकरणों का प्रणयन प्रारम्भ हुआ। इन सभी परवर्ती व्याकरणों में विषय के सरलीकरण का प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है। स्व-स्व सम्प्रदाय विशेष की आबद्धता एवं भाषा में प्रयुज्यमान नये प्रयोगों के साधुत्व विधान की दृष्टि भी इन व्याकरणों में लक्षित होती है।
पाणिनीयेतर व्याकरणों के झंझावात के कारण पाणिनीय तन्त्र की आभा धूमिल होने लगी थी। महाभाष्य जैसा आकार ग्रन्थ भी लुप्तप्राय हो रहा था। ऐसे विषम समय में पाणिनीय सम्प्रदाय के अनुयायी आचार्यों ने अष्टाध्यायी को प्रक्रिया क्रम में निबद्ध करने का यत्न किया। फलस्वरूप ‘रूपावतार’ जैसे ग्रन्थ की रचना हुई।
Reviews
There are no reviews yet.