सौरपुराण ब्रह्मपुराणान्तर्गत उपपुराण है। यह ६९ अध्याय में संयोजित है। उपलब्ध प्रतियों में इसकी श्लोकसंख्या ३८९९ है। इसे कहीं-कहीं आदित्यपुराण भी कहा गया है। इसमें पूर्णतः शिवमाहात्म्य ही वर्णित है। भगवान् सूर्य इसके उपदेष्टामात्र हैं। वर्तमान में प्राप्त सौरपुराण में अंकित है कि यह ब्रह्मपुराण का ही परिशिष्टांश है। इस पुराण की दो संहिताओं का वर्णन प्राप्त होता है। प्रथम है-सनत्कुमार-कथित एवं द्वितीय है-सूर्य द्वारा वैवस्वत मनु से कथित। वर्तमान में दोनों ही संहितायें पृथक् रूप से प्राप्त नहीं है। प्राप्त प्रतियों में दोनों संहितायें ओतप्रोत भाव से विद्यमान हैं। अस्तुः उनका विविक्त रूप उपलब्ध नहीं होता। १८ उपपुराणों में सनत्कुमार- वर्णित आद्यपुराण (आदिपुराण) का नामोल्लेख है और किसी के मत से यही सौरपुराण का आदि रूप है।
सम्प्रति यह उपपुराण पाशुपत सम्प्रदायोक्त साधनविधि का ही पूर्वरूप उपस्थित करता है। इसे माहेश्वर योग भी कहा जा सकता है। इसमें वेदोक्त कर्म, नित्य नैमित्तिक तथा काम्यकर्म एवं मुक्तिकामी-हेतु वेदनिर्भर मार्ग का शिवभक्ति रूप में प्रतिपादन किया गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि पाशुपत सम्प्रदाय वाले शिवभक्तों ने अपने सम्प्रदाय के उत्कर्षार्थ भी सौरपुराण का ही आश्रय लिया था। शिवनिन्दकों की वृद्धि हो जाने पर इस पुराण की रचना की गयी है, ऐसा भी आभास मिलता है।
इसमें ब्रह्मा तथा विष्णु को शिवानुग्रहप्रार्थी बतलाया गया है। कृष्ण का अतुलनीय शिवभक्त के रूप में उल्लेख किया गया है। कृष्ण की पूजा से शिव की पूजा तथा शिवपूजा से कृष्णपूजा का सम्पादित हो जाना भी एक समन्वयात्मक विचारधारा के रूप में इस उपपुराण में वर्णित है।
इस पुराण के सप्तदश अध्याय के अनेक श्लोक मनुसंहिता के द्वितीय तथा चतुर्थ अध्याय से मिलते हैं। अब यह गवेषणा का विषय है कि क्या ये श्लोक सौरपुराण से मनुसंहिता में लिये गये
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