यह माध्यन्दिनीय शतपथ ब्राह्मण चौदह काण्डों में है। इसमें कंड के अंतर्गत प्रपाठक, प्रपाठक के अंतर्गत अध्याय, अध्यायों में ब्राह्मण और ब्राह्मणों में कंडिका होते हैं। अधिकांश विश्वविद्यालयों में इसके प्रथम दो अध्याय पाठ्यक्रम में रखे गये हैं। इस पर राजभाषा में आचार्यों के अनेक व्याख्यान हैं। इन दोनों प्रकरणों का पाँचवाँ व्याख्यान सम्पूर्णानन्द-संस्कृत-विश्व विद्यालय, वाराणसी से प्रकाशित हुआ। भाष्य लिखने का क्रम ऐसा रहा है कि यदि किसी ने किसी कांड पर भाष्य लिखा है तो आचार्य उसे वाक्य बदल-बदल कर अपने नाम से प्रकाशित करते रहे हैं। उससे आगे समझना चाहो तो नहीं समझ सकते. आप इस पुस्तक को आचार्य सायण की इस टिप्पणी से नहीं समझ सकते। इसमें बृहदारण्यक उपनिषद पर आचार्य शंकर की टीका भी है। इससे बृहदारण्यक उपनिषद को तो समझा जा सकता है, परंतु शेष भाग को आचार्य सायण की टीका आज के समय में समझाने में सक्षम नहीं है। प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखी गई व्याख्याएँ इस धारणा पर आधारित थीं कि इतना तो लोगों को ज्ञात था; उससे आगे जो कुछ ज्ञात नहीं होता था, दुभाषिए वही लिख देते थे। आज जब मूल अर्थ का ही ज्ञान नहीं है तो उस प्राचीन व्याख्यान से पुस्तक का अर्थ कैसे जाना जा सकता है? इसलिए मैंने वर्तमान को ध्यान में रखते हुए इस पर एक टिप्पणी लिखने का प्रयास किया है. इसलिए इसे समझाने के लिए मैंने पूरी किताब पर एक टिप्पणी लिखने का फैसला किया और उसे पूरा किया. इसका भाष्य लिखने की ओर मेरा झुकाव इस कारण हुआ कि एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के वेद विभाग के अध्यक्ष, जिनका नाम लिखना मैं उचित नहीं समझता, मुझसे मिलने जम्मू आये थे। उनकी पहली नियुक्ति मेरे प्रयासों से हुई। वह बहुत दूर से प्रार्थना करने आया था, ‘गुरुजी! आज के समय में मेरे ही नहीं पूरे भारत में कोई भी ऐसा आचार्य नहीं है जो वेदों की व्याख्या आचार्य स्तर पर कर सके। हम सब किसी तरह अपनी छाती से गाड़ी को धक्का दे रहे हैं। विभाग कैसे बंद करें? तुम्हें आचार्य के समस्त वैदिक ग्रन्थों का व्याख्यान करना चाहिये। ऐसा प्रतीत नहीं होता कि कोई और है जिससे मैं अनुरोध कर सकूं। उस वैदिक विद्वान के अनुरोध को ध्यान में रखते हुए, शांखायनशाख पर भाष्य पूरा होने के बाद, मैंने शतपथब्राह्मण का कार्य संभाला और उसे पूरा भी किया। अब आप सभी सज्जनों को इस पुस्तक को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
ऋग्वेद की आश्वलायनशाखा
इसके अतिरिक्त यह बताना चाहता हूँ कि ‘इन्दिरागान्धी राष्ट्रीय कला केन्द्र’ ने ऋग्वेद की लुप्त शाखा आश्वलायन का भी प्रकाशन कर दिया है। उसका मूल्य रु. २५००/ है। मैंने उसे भी क्रय कर लिया है। उस पर भी भाष्यरचना चल रही है। उस शाखा पर भाष्यरचना करते हुए मैंने ८० प्रतिशत कार्य पूर्ण कर दिया है। वह भी जून २०२३ तक प्रेस को चला जायेगा।
ब्राह्मणभाग का वेदत्व
‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्’ यह मान्य सिद्धान्त है। इसके अनुसार मन्त्र-भाग और ब्राह्मणभाग, दोनों ही वेद है। जो लोग ब्राह्मणभाग को वेद नहीं मानते है, उनका तर्क है कि ‘वेद नित्य है। महाप्रलय में भी उनका नाश नहीं होता है। जब कि ब्राह्मणभाग में जो इतिहास का वर्णन है, जैसे-याज्ञवल्क्य-जनक-संवाद’। याज्ञवल्क्य और जनक प्रलय में कहाँ थे?, जो उन्होंने संवाद किया और बृहदारण्यकोपनिषद् जैसे ग्रन्थ का उदय हुआ?, इस लिए ब्राह्मणभाग को वेद नहीं माना जा सकता है’?, यही उनका तर्क है। यह वात उठाने वाले दयानन्दसरस्वती जैसे आचार्य है?। इतना ही नहीं, उनके तकों का उत्तर देने में असमर्थ सनातनी पण्डित भी इसे ही सिद्धान्त मानने लगे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ जब मैं सनातन धर्म की सभा में बैठा था और पण्डित लोग एक साथ मुझ पर गरज कर दयानन्दी सिद्धान्त का प्रतिपादन करने लगे। सभी को सुनने के बाद मैंने जो तर्क दिया, उस पर वह सभी समाज हिल गया, जो चाहे दयानन्दी हो, अथवा सनातनी। वह प्रमाण सहित तर्क यह था कि मन्त्र-भाग में भी इतिहास का वर्णन है। जब इतिहास का वर्णन होने से ब्राह्मण-भाग को वेद नहीं मानते हो तो समान-व्याप्ति होने से मन्त्रभाग भी तुम्हारे लिए वेद नहीं है। और मन्त्र-भाग में वर्णित इतिहासों का मैंने उल्लेख कर दिया। उन सभी को आश्चर्य हुआ कि-‘क्या मन्त्र-भाग में इतिहास का भी वर्णन है?। वह वर्णन इस तरह है कि श्रौत यज्ञों के द्वारा वैदिक देवों की आराधना करने पर वैदिक देवों ने जिन-जिन राजाओं की रक्षा की है, उन राजाओं के निवास-स्थान और नाम-सहित ऋग्वेद में वर्णन है। ऋग्वेद की एकइस शाखाओं में मात्र एक ही शाखा शेष थी ‘शाकल’। उस पर आचार्य सायण का भाष्य है। लुप्त बीस शाखाओं में से एक शाखा शाङ्खायन जो राजस्थान के किसी नागर-ब्राह्मण-परिवार में श्रुति-परम्परा से सुरक्षित थी, उसे भारत-सरकार ने महर्षि-सान्दीपनि राष्ट्रिय-वेदविद्याप्रतिष्ठान, उज्जयिनी ने छापा और मुझे उपहार-प्रति भेंट किया। उस शाखा पर मैंने नारायणभाष्य की रचना की है।
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