तारकवधार्थ शिव के औरस से पार्वती के गर्भ से कार्तिक जन्मे। कार्तिक ने तारक यध किया। पार्वती पहले दक्ष की कन्या रूपेण जन्मी थी। उनका शिव के साथ स्वयंवर हुआ था, तयापि शिवद्वेषी दक्ष ने कन्या आचरण शिवप्रियता देख कर कन्या से द्वेष किया। एक यज्ञ का आयोजन करके उसने सभी देवगण को आमन्त्रित किया। केवल उपेक्षा करके शिव को नहीं बुलाया। पार्वती उस शिवरहित यज्ञ में पितृगृह में जाना चाहीं, परन्तु शिव ने उनको रोका। तथापि सती ने उस निषेध को आंशिक ही माना तथा पिता के यहां आई। शिवनिंदक दक्ष ने कन्या को देख कर वहां उसका मजाक उड़ाया। वह हंसने लगा तथा शिवनिंदा किया। पिता से उपेक्षित होकर तथा अति विद्रूप शब्दों में पतिनिंदा सुन कर सती ने यज्ञस्थल में ही देहत्याग कर दिया। अतः कार्तिक का उस समय जन्म नहीं हो सका, जबकि सती का विवाह उनके जन्नार्थ ही शंकर से हुआ था। अब तारक राज्य विस्तार करके और भी अत्याचार में लग गया। देवता भी उसके अत्याचार से बेचैन हो उठे। तब देवप्रार्थना के कारण पार्वती ने पुनः हिमालय की कन्या रूप में जन्म लिया। उनका बाल्यावस्था का नाम था शैलपुत्री। इन शैलपुत्री ने ही ब्रह्मचारिणी तथा चन्द्रघण्टा नाम से शिव को पति रूप से पाने हेतु कैशोर में कठोर तप किया था। क्रमशः ये युवती हो गईं। उनकी तपस्या से प्रसत्र होकर शिव वहां आये। इनकी वह बाह्य ज्ञान रहित तपोलीन मूर्ति देख कर उनका नाम कूष्माण्डा हुआ। शिव ने तब इनको आशीर्वाद दिया था। कार्त्तिक आये तथा पुत्ररूपेण कूष्माण्डा की गोद में खेलने लगे। तभी इनका नाम पड़ा स्कन्दमाता। कार्तिक ने तारक का वध किया, तब भगवती स्कन्दमाता ने जीवों हेतु कल्याणी मूर्ति कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री नाम धारण किया।
अन्तर्जगत्- अब अपने अन्दर दृष्टि फिराओ। वहां पहले दक्ष एवं हिमालय को पहचानो। तब नवदुर्गा एवं शिव को जान सकोगे। तब देख सकोगे चिरसंयत देवसेनानी कार्तिक को। तब समझोगे कि पार्वती के गर्भ से इन्होंने कैसे जन्म लिया? कैसे तारक का वध किया? कैसे अन्तर में स्वर्गराज स्थापना हो सकी? देख पाओगे कि कैसे कात्यायनी का व्रतोपवास रखे व्रजगोपियों ने कैसे प्रभु कृष्ण को पाया। देख पाओगे, काली के क्रोड़ में शिव का नग्न ताण्डव नृत्य। एक ओर भयंकरी, अन्य ओर वर एवं अभय देने वाली माता और ऊर्ध्वस्थ में देखोगे महागौरी को। ये शिव की गोद में नित्य स्थित और गम्भीर जाकर देखोगे भावी सिद्धिदात्री मूरत। ये कैवल्यदायिनी, मोक्षप्रदा, ब्रह्मा-अच्युत-शंकर से सदा वंदिता। भावातीता तथापि सर्व भावमयी, शुद्धा, निश्चला देवी।
अब अन्तर्राज्य में आओ। पहले दक्ष को देखो। वह है ईश्वर विमुख जीवन। जीव जब तक ईश्वर को नहीं मानता, देखता नहीं, स्वयं को ही सब कुछ ईश्वर मानता है, तब तक ही दक्ष है। परन्तु रोग, शोक, सस्ार, संग्राम में दक्ष जब प्रबल भाव से आक्रान्त होता है, निष्येषित होता है, तब असहाय-सा सान्त्वना चाहता है। तभी उस पाषण्ड में भी एक स्नेहमयी शक्ति दक्ष के भीतर अलक्ष्य भाव से एक स्निग्ध शक्तिरूप में आकर क्षण-क्षण में हाथ झुलाती बुलाती है। वही है उमा मूर्ति (पार्वती)। दक्ष उसे नहीं पहचानता। उसका आदर न करके उपेक्षा करता है।
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