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श्रीभविष्यमहापुराणं

Shri Bhavishya Mahapuranam (set of 3 Vol.)

3,500.00

SKU N/A Category puneet.trehan
Subject : Shri Bhavishya Mahapuranam
Edition : 2022
Publishing Year : 2022
SKU # : 37043-CS00-0H
ISBN : 9788170847359
Packing : 3 vol.
Pages : 2500
Dimensions : 20X26X14
Weight : 4680
Binding : Hardcover
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भविष्यपुराण से सम्बन्धित अपना मत लिखने के पूर्व यह कहना आवश्यक है कि विद्वानों का कवन है कि “इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत्” कि इतिहास तथा पुराण वेद के उपबृंहित रूप हैं। यहाँ इतिहास तथा पुराण इन दो शब्दों का प्रयोग ध्यान देने योग्य तथ्य है। दोनों एक ही अर्थ के द्योतक नहीं है। इतिहास अलग और पुराण उससे अलग है। बृहदारण्यकउपनिषद् के शांकरभाष्य के अनुसार जगत् के प्रारम्भ की अवस्था से लेकर सृष्टि कार्य का प्रारम्भ होने तक का वर्णन पुराण है। अर्थात् पहले कुछ नहीं था, असत् था इत्यादि सृष्टि पूर्व का वर्णन ही पुराण हैं। तदनन्तर जो कथा तथा संवादात्मक धारा चली, वह इतिहास है। वायुपुराण में “पुराण” शब्द की व्युत्पत्ति है पुरा (प्राचीन पहले) तथा अन् धातु साँस लेना अर्थात् जो अतीत में जीवित है। जो प्राचीन काल में साँस ले रहा है, वह पुराण है। पद्मपुराण के अनुसार “जो अतीत को चाहे, वह पुराण है।”

पुराणों का महत्त्व हमारे यहाँ बेदों से कदापि कम नहीं है। वेदोक्त अतीव. गूढ़ तया रहस्यावृत मन्त्रों का सरलीकरण तथा उनको जनसामान्य के लिए उपयोगी बनाने का महान् कार्य पुराणों द्वारा किया गया है। शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि पुराण वेद ही हैं। यह वही है। तैतिरीय आरण्यक में पुराण हेतु बहुवचन का प्रयोग है, अर्थात् इससे कई पुराणों की स्थिति का द्योतन होता है।

कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ “अर्थशास्त्र” में कहा है कि वेदत्रयी के अतिरिक्त इतिहास भी वेद है। विद्वान् शबर (२०० ई० से ३०० ई० के बीच), कुमारिल (सप्तम शती ई०), आचार्य शंकर (सप्तम

शती अथवा अष्टम शती) ने भी पुराण शब्द का व्यवहार पुराणों के सम्बन्ध में किया है। बाणभट्ट (सप्तम शती) ने भी पुराणों का उल्लेख किया है। अलबरूनी ने (१०३० ई०) अपने अन्ध में पुराण सूची का उल्लेख किया है। तथापि पुराणों को इन पाश्चात्य बुद्धि से उपजी काल सीमा में बाँधा जाना उचित नहीं है। इनके पश्चात् के संस्करणों की संरचना के आधार पर जो इनका कालमान तय किया जाता है वह वस्तुतः उन पुराणों के उन मूलभागों की अनदेखी करके किया जाता है, जिनमें कालजनित परिवर्तन तथा परिवर्द्धन नहीं है। तथापि यहाँ पुराणों का काल निर्धारण करना मेरा उद्देश्य नहीं है। भविष्य के अनुत्सन्धित्सु जिज्ञासु वर्ग के लिये यह एक दिशा संकेत मात्र है कि पुराणों के काल के निर्धारण में पाश्चात्य चश्मे तथा उनके मानदण्ड की जगह स्वदेशी एवं स्वतन्त्र दृष्टिकोण को अपनाया जाये। भारत के श्रद्धालु वर्ग के अनुसार ये पुराण सनातन काल से चले आ रहे हैं। उनका मूलतत्त्व एक हजार वर्ष ही पुराना नहीं है। वह तो शाश्चत अतिप्राचीन है। तदनुसार मानव वानर का विकसित रूप नहीं है। वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही रहा है। जो लोग स्वयं को वानरों का विकसित रूप डार्विन के विकासवाद के अनुसार मानते हैं, उनकी वानरी प्रज्ञा ही पुराणों को एक हजार वर्ष प्राचीन मानती है। हम आर्य वंशज वानरों की सन्तान न होने के कारण इसे अनादिकालीन मानते हैं। इस सम्बन्ध में आस्था तथा श्रद्धा ही विजयिनी है। पुराणों का प्राचीन भारतीय समाज में यह महत्त्व था

यह भविष्योत्तर पर्व अनेक प्रकाशकों द्वारा (भविष्योत्तरपुराण से उद्धृत) आदित्यस्तोत्र के रूप में प्रकाशित किया गया है। यह चतुर्थ पर्व अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आपस्तम्बधर्मसूत्र में इसका उल्लेख है। बल्लालसेन के काल यद्यपि भविष्योत्तर आयन्त प्रसिद्ध था तथापि उन्होंने इसका बहिष्कार ही किया था। अपरार्क में दोनों के लिये इसके १२५ श्लोकों को तथा स्मृतिचन्द्रिका ने इसके एक श्लोक को ग्रहण किया है। कल्पतरु में इसके सैकड़ों उत्तक संगृहीत है। पराशरस्मृति की भी कतिपय व्यवस्थायें भविष्योत्तर पर्व में गृहीत है। इसलिये इस पर्व को पाचात्य विद्वानों की परम्परा महण करके ईसवी सदी आदि की सीमा में नहीं रखना चाहिये। मिताक्षरा में की अर्पदंश पर सर्च की स्वर्णमूर्ति दान प्रसंग में भविष्योत्तर के श्लोक उद्भुत हैं।

इस खण्ड में व्रत, उत्सव, कर्मकाण्ड तथा दान के प्रसंग हैं। नारदपुराण में भविश्यमहापुराण की सूची देखी सची है। तदनुसार यह पर्व उसी प्रकार का है। इसमें व्रत निरूपण, नक्षत्र पुरुष आदि अनेक व्रतों तथा उत्सवों कवर्णन है। यहाँ पर दान के अनेक विवरण अंकित है। अगस्त्यार्थ्य-चन्द्रार्थ्य, वृषोत्सर्ग, जलधेनु आदि, तिलधेनु आदि, सहस्र गोदान, समस्त पर्वत दान, तुलापुरुष दान, कालपुरुष, शय्यादान, विश्व चक्र, आदि नाना बार के दानों का प्रभूत वर्णन मिलता है।

बंत की परिभाषा आदि के सम्बन्ध में भविष्यपुराण के प्रथम भाग के ‘निवेदन’ में कुछ शब्द कहे गये है। है। उसी तारतम्य में अब व्रत से सम्बन्धित अन्य तथ्यों का भी वर्णन प्रासंगिक लग रहा है। क्योंकि भविष्योत्तर खण्ड में व्रतों का विशद वर्णन है। याज्ञवल्क्य स्मृति में व्रत का अर्थ है प्रायश्चित्त (३/२५१, ३/२५२-२५४- २६६-२८२-२९८-३००)। यहीं पर व्रत का अर्थ ब्रह्मचर्य भी कहा गया है (यही, ३/१५)। भोजनादि की नियमन व्यवस्था भी व्रत है (३/२८९)। उस समय कतिपय व्रत (वेदव्रत) ब्रह्मचारीगण के लिये तथा कतिपय व्रत स्नातकों के लिये निर्दिष्ट थे। शाकुन्तल के अनुसार दुष्यन्त की माता ने व्रताचरण किया था। मृच्छकटिक में अभिरूपपति नामक पति प्राप्ति का व्रत कहा गया है। प्रारम्भ में प्रतीत होता है कि व्रत अधिक नहीं थे। ११वीं शती राजाभोजकृत राजमार्तण्ड में मात्र २५ व्रतों का, बारहवीं शती के ग्रन्थ लक्ष्मीधरकृत कृत्यकल्पतरु में १७५ व्रतों कर, हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणिः में ७०० व्रतों का उल्लेख मिलता है। व्रतकोश में १६२२ व्रत अंकित है।

पुराण वाङ्मय में व्रत को तीन श्रेणी में विभाजित किया गया है। पद्मपुराण (४/८४/४२) का कथन है एक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, कुटिलता रहित होना (आर्जवता) आदि मानस व्रत हैं। इससे श्रीहरि की उमजता मिलती है। दिन में एक ही बार भोजन, नकभोजन (सूर्यास्तोपरान्त दिन भर में मात्र एक बार भोजन),

उपवास (अहोरात्र का), अयाचित भोजन (चिना माँगे मिलने बाला) ये सब कायिक व्रत हैं। वेदाध्ययन, विष्णुनाम का सतत् स्मरण, सत्यभाषण, किसी की पीठ पीछे निन्दा न करना (पैशुन्य) ये बाधिक व्रत है। ये तीनों ऐचिठक व्रत भी कहे गये हैं।

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