ग्रन्थ का नाम – शुक्लयजुर्वेद-प्रातिशाख्यम्
व्याख्याकार – डॉ. वीरेन्द्र कुमार वर्मा
वेदों के व्याख्यान् के लिए ऋषियों के द्वारा शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थों का निर्माण हुआ। प्रत्येक शाखाओं के उच्चारण सम्बन्धित ग्रन्थों को प्रतिशाख्य कहा गया। इन्हें निरूक्त में पार्षद नाम से स्मरित किया गया है। वेदों के क्रमपाठ और पदपाठ के अध्ययन के लिए प्रतिशाख्य विशेष सहायक होते है।
प्रस्तुत ग्रन्थ वाजसनेयि-संहिता से सम्बन्धित वाजसनेयि-प्रतिशाख्य आचार्य शौनक के शिष्य कात्यायन की रचना है। वा.प्रा. में आचार्य कात्यायन ने वाजसनेयी-संहिता के बाह्य स्वरूप के विषय में अत्यन्त सूक्ष्म एवं वैज्ञानिक नियमों का निर्माण किया है। इस प्रतिशाख्य में 8 अध्याय है। अध्याय के अन्तर्गत सूत्र है।
इस प्रतिशाख्य के मुख्य विषय निम्न प्रकार है –
- वर्ण विचार – वा.प्रा. का मूल उद्देश्य वा.सं. के परम्परागत शुद्ध उच्चारण को सुरक्षित रखना है। इसमें वर्णोत्पत्ति, वर्णो के उच्चारण में स्थान और करण, अक्षर-विभाजन इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का विधान किया है।
- स्वर विचार – संहिता का पाठ परम्परा के अनुसार करना पड़ता है। यह पाठ साधारण न होकर स्वराघातों के अनुसार होता है। स्वर की अत्यल्प त्रुटि होने पर भी अर्थ का अनर्थ हो जाता है। इसी कारण वा.प्रा. में स्वर विषयक विस्तृत विधान है। इस ग्रन्थ में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के लक्षण, स्वरित के भेद एवं उनके लक्षण, स्वरित के उच्चारण में हस्तप्रदर्शन इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन किया गया है।
- संधि विचार – प्रतिशाख्यों का मुख्य विषय है पदों से संहिता पाठ का निर्माण करना। पदों से संहिता पाठ का निर्माण संधि के नियमों के आधार पर ही होता है। यही कारण है कि इसमें संधि विषयक नियमों का विधान किया है।
- पदपाठ विचार – इसमें पद के लक्षण, पद-पाठ में इतिकरण का विधान, स्थितोपस्थित का स्वरूप, अवग्रह का विस्तृत विधान इत्यादि विषयों का प्रतिपादन किया है।
- क्रमपाठ विचार – इस ग्रन्थ के सप्तम अध्याय में क्रमपाठ का विधान किया गया है।
- वेदाध्ययन विचार – वेदाध्ययन अव्यवस्थित तथा अनियमित रूप से नहीं किया जा सकता है। वेदाध्ययन की अपनी विशिष्ट विधि है। इन विधियों का वर्णन इस प्रतिशाख्य के अन्तर्गत किया गया है।
इस प्रतिशाख्य की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार है –
- वा.प्रा. में वर्ण-समाम्नाय का स्पष्ट रूप से कथन किया गया है।
- भाषा-विज्ञान की दृष्टि से वा.प्रा. का अत्यधिक महत्त्व है। वा.प्रा. में वर्णों के स्वरूप और उनके उच्चारण-प्रकार का गम्भीर एवं वैज्ञानिक विवेचन किया गया है।
- वैदिक स्वर, वैदिक संधि, क्रम-पाठ इत्यादि के विषय में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विधान वा.प्रा. में किये गये है।
- इसमें अन्य आचार्यों के मतों का भी उल्लेख किया गया है।
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