वागर्थैवि संप्रक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। जगतः पितृ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी।।
वाक् में जिस प्रकार उसका अर्थ सम्पृक्त है उसी प्रकार सम्पृक्त जगत् के माता-पिता भगवती पार्वती एवं महेश्वर की मैं शब्द एवं उसके अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान) के लिए वन्दना करता हूँ।
पुराणों में ग्रन्थों का समावेश है जिनमें सर्ग अर्थात् ईश्वरीय सृष्टि, प्रतिसर्ग अर्थात् सृष्टि एवं प्रलय, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित पाँच विषयों का समावेश रहता है।
प्रायः सभी पुराणों में सर्ग अर्थात् सृष्टि का वर्णन मिलता है। सभी पुराणों में इस सम्पूर्ण पृथ्वी का विन्यास, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र एवं अखिल ब्रह्माण्ड का वर्णन एक सा ही मिलता है। जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप आदि सातों द्वीप एवं सात समुद्रों का वर्णन भी प्रायः सभी में मिलता है। इन द्वीपों के अन्तर्गत विभिन्न वर्षों का वर्णन, उनकी सीमाएँ और विस्तार आदि का वर्णन भी मिलता है, किन्तु इनका विस्तार प्रमाण आधुनिक परिमाणों से भिन्न है। इन देशों के निवासियों के आचार-विचार, स्वभाव, सभ्यता, रुचि एवं भौगोलिक स्थितियों का भी वर्णन है।
प्राणवायु प्रदान करने वाले वायुदेवता इस वायुमहापुराण के वक्ता हैं। वायुप्रोक्त वायुमहापुराण दो भागों में विभक्त है। १. पूर्वार्द्ध और २. उत्तरार्द्ध । वायुप्रोक्त इस वायुमहापुराण में चार पाद है। १. प्रक्रियापाद (१- ६ अध्याय), २. उपोद्घातपाद (७-६१ अध्याय एवं उत्तरार्द्ध का १-३ अध्याय), ३. अनुषङ्गयाद (उत्तरार्द्ध ४- ३७ अध्याय), ४. उपसंहारपाद (उत्तरार्द्ध ३८-५० अध्याय) ।
वायुमहापुराण के प्रक्रियापाद में जगत् की प्रक्रिया का वर्णन है। दूसरे उपोद्घातपाद में जगत् के उपोद्घात कहे गए हैं। तीसरे अनुषङ्गपाद में आनुषङ्गिक ज्ञान की प्रस्तुति है। चौथे उपसंहारपाद में वायुमहापुराण का उपसंहार किया गया है। वायुमहापुराण में पूर्वार्द्ध में इकसठ अध्याय हैं और उत्तरार्द्ध में पचास अध्याय हैं। सम्पूर्ण वायुमहापुराण में एक सौ ग्यारह अध्याय हैं। देवीभागवत के अनुसार अयुतं वामनाख्यं च वायव्यं षट्शतानि च । चतुर्विंशतिसंख्यातः सहस्त्राणि तु शौनकः ॥ हे शौनक । वामन पुराण में दस हजार एवं वायुमहापुराण में चौबीस हजार छः सौ श्लोक हैं।
१. वायुमहापुराण के प्रथम अध्याय में सम्पूर्ण वायुमहापुराण की अनुक्रमणिका कही गई है। यह प्रथम अध्याय प्रक्रियापाद में ही है। प्रक्रियापाद में छः अध्याय हैं, जिनका विषय इस प्रकार है- वायुमहापुराण की अनुक्रमणिका, बारह वर्षों तक चलने वाले यज्ञ का निरूपण, प्रजापति की सृष्टि का वर्णन, प्राचीन ऋषियों की विचित्र सृष्टि का वर्णन, सृष्टिप्रकरण, सृष्टिप्रकरण ।
[12:36 PM, 6/26/2024] Ved Rishi: २. उपोद्घातपाद (७-उत्तरार्द्ध के तीन अध्याय) के विषय इस प्रकार हैं- कल्पों की प्रतिसन्धि का
[12:38 PM, 6/26/2024] Ved rishi: वर्णन, चतुराश्रम विभाग वर्णन, देव आदि की सृष्टि का वर्णन, मन्वन्तरों का वर्णन, पाशुपतयोग निरूपण, वर्णनय सर्व वर्णन, योगैश्वर्य निरूपण, पाशुपतयोग निरूपण, पाशुपतयोग निरूपण, शौचाचार लक्षण निरूपण, परमाश्रम विधि वर्णन, प्रकृति लक्षण निरूपण, अरिष्ट निरूपण, ओंकारप्राप्ति लक्षण निरूपण, कल्प निरूपण घरमाश्रम विनिरूपण, महेश्वरावतारयोग, शर्वस्तव, मधुकैटभोत्पत्तिविनाश वर्णन, स्वरोत्पत्ति निरूपण, महादेव के शरीर का वर्णन, ऋषिवंश कीर्तन, अग्निवंश वर्णन, दक्षप वर्णन, देववंश वर्णन, युगधर्म, स्वायम्भुव वंश वर्णन, जम्बूद्वीप वर्णन, भुवनविन्यस, ग्रह एवं नक्षत्रों का वर्णन भ्रमण, ज्योतिष सन्निवेश, नीलकण्ठ की स्तुति, लिंगोद्भवस्तव, पितरों का वर्णन, यज्ञ का वर्णन, चतुर्युग का वर्णन, त्रिऋषियों के लक्षण, महास्थानतीर्थवर्णन, प्रजापति के वंश का वर्णन, पृथ्वी का दोहन, पृथु के वंश का वर्णन, वैवश्वत मन्वन्तर की सृष्टि का वर्णन।
३. अनुषङ्गपाद (उत्तरार्द्ध ४-३७ अध्याय) के विषय इस प्रकार हैं- प्रजापति के वंश का वर्णन, कश्यप ऋषि की प्रजा का वर्णन, कश्यप की प्रजा सृष्टि का वर्णन, कश्यप की सन्ततियों की सृष्टि का वर्णन, कश्यप ऋषि की प्रजा सृष्टि, ऋषि वंश का वर्णन, श्राद्ध की प्रक्रिया, श्राद्ध कल्प का वर्णन, श्राद्ध कल्प में तीर्थयात्रा, श्राद्ध कल्प में दान का फल, विशेष तिथि में श्राद्ध का फल, फल, विशेष नक्षत्रों में श्राद्ध का फल, गया श्राद्ध का फल, वरुणवंश वर्णन, वैवस्वतमनुवंश वर्णन के प्रसङ्ग में गन्धर्वो की मूर्छना, गीतालङ्कार वर्णन, वैवस्वतमनुवंश के अन्तर्गत मैथिलवंश का वर्णन, चन्द्रमा का जन्म वृत्तान्त, चन्द्रवंश का वर्णन, रजियुद्धवर्णन, ययातिप्रसव कीर्त्तन, कार्तवीर्यार्जुनोत्पत्ति वर्णन, ज्यामध वृत्तान्त वर्णन, विष्णुवंश वर्णन, विष्णुमाहात्म्य वर्णन, विष्णुमाहात्म्य वर्णन, ययाति के पुत्रों का वंशवर्णन ।
४. उपसंहारपाद (उत्तरार्द्ध ३८-५० अध्याय) के विषय इस प्रकार हैं- मन्वन्तरों का वर्णन, भूलोंक आदि की व्यवस्था एवं शिवपुर का वर्णन, प्रतिसर्ग वर्णन, सृष्टिवर्णन, व्यासजी की सन्देह निवृत्ति का वर्णन और गया माहात्म्य वर्णन ४३-५० आठ अध्यायों में है। वायुमहापुराण में जैसा गया माहात्म्य कहा गया है वैसा सम्पूर्ण पुराण साहित्य में नहीं है।
नव भेद कहे यह पुराण भारतवर्ष को जम्बू द्वीप का मध्य स्थान मानता है। वायुमहापुराण में भारतवर्ष के गाए हैं। जो समुद्र से घिरे हुए और परस्पर अगम्य हैं। उनमें यह भारतवर्ष, जो कुमारी अन्तरीप (कन्याकुमारी) से लेकर गंगोत्री तक फैला हुआ है, नवाँ वर्ष है। यह कहकर वायुमहापुराण में भारतवर्ष के अन्य आठ विभाग बतलाते हैं। इन आठों की सीमा क्या है, यह यहाँ नहीं कही गई है। प्राचीन काल में भारतवर्ष की सीमा और बृहत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति आज से कुछ भिन्न थी। भारतवर्ष की नदियों, पर्वतों और प्रान्तों के वर्णनों को देखकर समग्र भारतवर्ष के भौगोलिक ज्ञान का पता चलता है। हिमालय से लेकर दक्षिण के सह्याद्रि, मलय पर्वत, नीलगिरि, मध्य के विन्ध्य, श्रीशैल आदि पर्वतों और सिन्धु, सरस्वती, शतद्रु, विपाशा, वितस्ता, गङ्गा, यमुना, सरयू, गण्डकी, इरावती, कोसी (कौशिकी), इच्छु, लोहित अर्थात् ब्रह्मपुत्र आदि उत्तर की हिमालय से निकलने वाली नदियों और विदिशा, वेत्रवती अर्थात् बेतवा, महानद शोण (सोन) आदि विन्ध्य से निकलने वाली नदियों, गोदावरी, कृष्णा, तुङ्गभद्रा, भीमरथी, सुप्रयोगा, कावेरी आदि दक्षिणापथ की सह्य पर्वत के पाद से निकली नदियों का वर्णन कर विशाल भारत के भौगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता का परिचय दिया है। इन नदियों को वायुमहापुराण में विश्वस्य मातरः सर्वाः जगत् पापहरा स्मृताः ॥ यह कहकर सूतजी ने प्राचीन भारतीयों को प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम एवं श्रद्धा का वर्णन किया है।
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