यह है राजपूताना अपना नाज इसे तलवारों पे, इसने सारा जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे । यहाँ प्रताप का वचन पला है आजादी के नारों पे, कूद पड़ी थीं यहाँ हजारों पद्मिनियाँ अंगारों पे ।।
बोल रही है कण-कण से कुर्बानी राजस्थान की । आओ वीरो तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की ।।
हमने स्वाधीनता की लड़ाई लड़ना ७१२ ई० में शुरू कर दिया था, जिसमें सिन्ध के राजा दाहिर व उसके परिवार ने प्रजा की रक्षा करते हुए अपना जीवन होम किया था। सम्पूर्ण सल्तनत काल (११९२-१५२६ ई०) तक हम अपना देश व धर्म बचाने के लिए विदेशी सत्ता से स्वाभिमान पूर्वक लड़ते रहे, पानीपत की दूसरी लड़ाई (१५५६ ई०) में वीर हेमचन्द्र (हेमू) की पराजय के बाद हमारे बहुत से राजाओं ने स्वाभिमान के साथ समझौता कर लिया और मुगलों से शादी-ब्याह कर वे भी उन्हीं के शासन के लिए अपनों का खून बहाने लगे। केवल एक मेवाड़ ही इतनी बड़ी मुगल सत्ता (जिसमें विदेशियों के साथ अपने भी शामिल थे) से स्वाभिमान हेतु वर्षों (१५२७ ई०-१६१५ ई०) तक लड़ता रहा। यदि भारत के हिन्दू राजा मुगलों का साथ न देते, तो महाराणा अमरसिंह को संधि के लिए मजबूर न होना पड़ता। फिर भी मेवाड़ से प्रेरणा लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे स्वतन्त्रता सेनानी आगे बढ़ते रहे । तभी तो प्रधानमन्त्री नेहरू जी मेवाड़ के महाराणा भगवतसिंह को (१९५६ ई०) लाल किले में ले गए और इसे महाराणा प्रताप की विजय बताया था।
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