पुस्तक का नाम – स्वामी श्रद्धानन्द
लेखक का नाम – पं. सत्यदेव विद्यालङ्कार
जब देश में चहुँओर अज्ञान व अविद्या का साम्राज्य था, भारतीय समाज तरह-तरह की कुरीतियों एवं मिथ्या अंधविश्वासों से जकड़ा हुआ था तथा प्राचीन भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म एवं समाज की प्रगति की ओर किसी का ध्यान नहीं था, ऐसे में महर्षि दयानन्द का जन्म हुआ था। महर्षि ने आकर समाज और शिक्षा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व क्रांति को जन्म दिया, भारतवासियों को स्वराज्य, स्वसंस्कृति, निज भाषा एवं स्वाधीनता का मूल मंत्र दिया, जनमानस का वेदों को अपनाने के लिए आह्वान किया तथा सन् 1875 में बम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। महर्षि के बलिदान के बाद जिन लोगों ने उनकी परम्परा को आगे बढा़या, उनमें प्रमुख थे – पण्डित लेखराम, पंडित गुरुदत्त तथा स्वामी श्रद्धानन्द।
प्रस्तुत कृत्ति में स्वामी श्रद्धानन्द जी की जन्म से बलिदान तक की सम्पूर्ण जीवन-यात्रा का चित्रण किया गया है। इसका पूर्वार्द्ध स्वामी श्रद्धानन्द सन्यासी कृत कल्याण मार्ग का पथिक पर आधारित है तथा उत्तरार्द्ध स्वामी जी की डायरी एवं अन्य उपलब्ध अभिलेखों के आधार पर लिखा गया है। इस पुस्तक में आश्रम व्यवस्था अनुसार चार भाग किये गये हैं। पहले भाग में जन्म से लेकर मथुरा निवास तक की कथा का उल्लेख है। द्वितीय भाग में शिवदेवी जी से विवाह, महर्षि दयानन्द जी से साक्षात्कार, नास्तिकता से आस्तिकता की ओर, आर्यसमाज के प्रवेश के साथ नये जीवन का सूत्रपात, सार्वजनिक जीवन का उपक्रम, आर्यसमाज का नेतृत्व, गुरुकुल का स्वप्न आदि का वर्णन है। तृतीय भाग में सर्वमेध यज्ञ, गुरुकुल की स्थापना, विकास तथा विदाई का वर्णन किया है। चतुर्थ भाग में सन्यासाश्रम में प्रवेश, राजनीति में प्रवेश और त्याग, शुद्धि आंदोलन और बलिदान आदि प्रसंगों की चर्चा है। पुस्तक के परिशिष्ट भाग में संदर्भित पुस्तकों की सूची दी गई है तथा कई ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाश में लाया गया है। आशा है कि यह पुस्तक पाठकों के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय होगी। -गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक विख्यात पत्रकार पं. सत्यदेव विद्यालंकार की कृति- “दुर्लभ पुस्तक ‘स्वामी श्रद्धानन्द’ का नया भव्य संस्करण प्रकाशित”– डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान, प्रभावशाली वक्ता, ऋषि भक्त, लेखक, सम्पादक एवं आर्य साहित्य के मर्मज्ञ हैं। आपने विगत कुछ वर्षों में अनेक ग्रन्थों का सम्पादन किया है जिनका प्रकाशन वैदिक साहित्य के सुप्रसिद्ध प्रकाशक ‘श्रीघूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी’ एवं ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ से हुआ है। अभी कुछ माह पूर्व आपने ‘आर्य संस्कृति के संवाहक आचार्य रामदेव’ नाम से एक बृहदकाय ग्रन्थ का सम्पादन किया जो कि उपर्युक्त हिण्डोन सिटी के प्रकाशक से प्रकाशित हुआ। आचार्य रामदेव पर ऐसा भव्य एवं अतीव महत्वपूर्ण जानकारियों से युक्त ग्रन्थ का पहली बार प्रकाशन हुआ है। जिन लोगों को यह ग्रन्थ उपलब्ध है, हम समझते हैं कि वह सभी सम्पादक व प्रकाशक के इस कार्य को सराहेंगे।
आज ही हमें स्पीड पोस्ट से डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी की कृति ‘स्वामी श्रद्धानन्द’ नामक कृति को हमें प्रेषित किया है। इस पुस्तक के सम्पादक डा. विनोदचन्द्र जी ही हैं। पुस्तक प्राप्त कर हमें अत्यन्त प्रसन्नता हुई जिसे शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं है। पुस्तक का कवर पृष्ठ हम इस फेस बुक पोस्ट के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। पुस्तक 448 पृष्ठों की है। पुस्तक में मूल्य नहीं दिया गया है। पुस्तक चार भागों में अनेक परिशिष्टिं सहित हैं। पहला भाग जन्म, बाल्यावस्था, शिक्षा का प्रारम्भ, स्वतन्त्र जीवन के दुष्परिणाम तथा मथुरा में दस दिन आदि विषयों पर है। पुस्तक के दूसरे भाग में मुंशीराम जी के ग्रहस्थाश्रम प्रवेश एवं उनकी आजीविका पर प्रकाश डाला गया है। इसके भाग- ख में आयसमाज की ओर शीर्षक से अनेक विषयों को सम्मिलित किया गया है। यह शीर्षक हैं आर्यसमाज में प्रवेश, दृढ़ आर्य बनने की तैयारी, मांस-भक्षण का त्याग, जालंधर आर्यसमाज में पहला भाषण, धर्म-संकट, पिताजी के विचारों में परिवर्तन आदि। ‘ग’ उपशीर्षक में धार्मिक उत्साह का प्रारम्भ, बिरादरी से खारिज किये जाने की धमकी, धर्म-प्रचार का विस्तार, जालन्धर-आर्यसमाज का पहला उत्सव, पं. दीनदयालु जी से मुठभेड़, बम्बई की पहली यात्रा, प्रथम पुत्र का जन्म आदि अनेक विषय हैं और ‘घ’ उपशीर्षक में ‘आर्यसमाज का नेतृत्व’ के अन्तर्गत लाला मुंशीराम से महात्मा मुंशीराम, सद्धर्म प्रचारक का शुभारम्भ हरिद्वार में कुम्भ प्रचार, स्त्री शिक्षा की लगन आदि अनेक विषय हैं। पुस्तक के तृतीय भाग में सर्वमेध यज्ञ की प्रस्तावना एवं गुरुकुल को सम्मिलित किया गया है। इसे तीन उपशीर्षक गुरुकुल की स्थापना की योजना, आर्यसमाज और सरकार एवं मुंशीराम जी का सराहनीय कार्य देकर प्रस्तुत किया गया है। यह सामग्री लगभग 60 पृष्ठों में पूर्ण हुई है। चतुर्थ भाग संन्यास-दीक्षा एवं सार्वजनिक जीवन में सक्रियता पर है जो पृष्ठ 259 से आरम्भ होकर 375 पर समाप्त हुआ है। इसके बाद 11 परिशिष्ट दिये गये हैं। यह सभी परिशिष्ठि अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। विस्तार भय से हम यहां इनका उल्लेख नहीं कर पा रहे हैं। विषय सूची के बाद 8 पृष्ठों का पुरोवाक् है जिसे सम्पादक डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने लिखा है। पुरोवाक् में सम्पादक महोदय ने स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या के बाद मार्च, 1927 में गांधी जी द्वारा यंग इण्डिया में लिखे शब्दों को प्रस्तुत किया है। इसमें कहा गया है ‘स्वामी श्रद्धानन्द के प्राण गुरुकुल कांगड़ी में ही बसते थे, भले ही उनका नश्वर शरीर समय-समय पर चाहे जहां क्यों न घूमता-फिरता रहा हो और जब तक गुरुकुल का अस्तित्व है, तब तक स्वामी श्रद्धानन्द जी भी जीते रहेंगे। इसलिए इस स्वर्गीय शहीद की याद में जो अच्छे से अच्छा स्मारक खड़ा किया जा सकता है, वह है इस गुरुकुल के अध्यापकों और स्नातकों के सुन्दर चारित्र्यबल और प्राचीन शिक्षा और उस पर आधारित आचरण को प्रधानता देते रहने के दृढ़ संकल्प से 2 ही बनकर निखरेगा। असहयोग आन्दोलन शुरू होने से काफी पहले से ही श्रद्धानन्द जी यह कहते थे और उनका कहना उचित भी था कि यह गुरुकुल असहयोग आन्दोलन में दी गई व्याख्या के अनुसार एक राष्ट्रीय संस्था है।
स्वामी जी का योग्य स्मारक होने के लिए गुरुकुल को पूरी तौर पर सरकार से स्वाधीन रखना होगा।’ यह पूरा पुरोवाक् पढ़ने योग्य है। इसके बाद ग्रन्थकार पंडित सत्यदेव विद्यालंकार जी का 2 अक्टूबर, 1931 की लिखी हुई भूमिका है। यह भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इसमें पुस्तक लेखन के संबंध में प्रकाश डाला गया है। ग्रन्थ के रचनाकार पं. सत्यदेव विद्यालंकार गुरुकुल से सन् 1920 में स्नातक बने थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी को उन्होंने निकटता से देखा था। पं. सत्यदेव जी ने पत्रकारिता को अपना लक्ष्य बनाकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी के सान्निध्य में ‘सद्धर्म प्रचारक’ और ‘श्रद्धा’ का सम्पादन किया, अनेक राष्ट्रीय पत्रों में सम्पादक के रूप में कार्य किया तथा दर्जनों मौलिक कृतियों का सृजन किया। पं. इन्द्र जी ने पं. सत्यदेव जी को योग्य जानकर उनसे अपने पिता स्वामी श्रद्धानन्द जी की जीवनी लिखने का अनुरोध किया और अपने पास एकत्र लगभग 40000 हजार पृष्ठों की सामग्री उन्हें सौप दी। लेखक पंडित सत्यदेव विद्यालंकार ने लगभग चालीस हजार पृष्ठों की सामग्री का गहन अवलोकन एवं छानबीन करने के बाद जो कुछ तैयार किया उसकी ही परिणति है ‘स्वामी श्रद्धानन्द’ का यह बृहदकार्य जीवन चरित्र जो सन् 1933 में प्रकाशित हुआ था।
पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी ने पुस्तक की भूमिका में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को भी प्रस्तुत किया है। उन्हें हम उपयोगी जानकर प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘इतिहास के समान ही जीवनी के लिए की जाने वाली खोज का भी कोई अन्त नहीं है और इस जीवनी के लिए भी आवश्यक सामग्री अभी बहुत अधिक इकट्ठी की जा सकती है, किन्तु लेखक को इतना संतोष है कि प्राप्त सामग्री का उसने पूरा सदुपयोग किया है और कोई चालीस हजार पन्नों की उसने इसके लिए छानबीन की है। विचार यह था कि जीवनी को पांच-सौ पृष्ठों से अधिक बढ़ने न दिया जाये। पर, साढ़े छः सौ पृष्ठ हो जाने पर भी उसमें अभी बहुत कमी अनुभव हो रही है। उस कमी को पुस्तक का आकार बढ़ाये बिना पूरा करना संभव नहीं था। यदि इस संस्करण का योग्य स्वागत हुआ, तो संभव है वह कमी दूसरे संस्करण में पूरी की जा सके। वैसे यह काम एक या दो व्यक्तियों के करने का नहीं था। जालन्धर आर्यसमाज, पंजाब-प्रतिनिधि-सभा, गुरुकुल-कांगड़ी और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा पर स्वामी जी का जो उपकार और ऋण है, उसको देखते हुए उनमें से ही किसी संस्था को यह काम करना चाहिए था।
अच्छा तो यह होता कि गुरुकुल में ही बैठ कर उसके लिखने का काम डाला जाता और पंजाब-प्रतिनिधि-सभा अथवा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा मिल कर अथवा दोनों में से कोई एक आर्थिक भार की सब जिम्मेवारी अपने ऊपर लेती। इस यत्न में कमी या त्रुटि अनुभव करने वालों के लिए अब भी समय है कि आगे बढ़ें और उसको पूरा करने का यत्न करें। जीवनी के कुछ हिस्से संभव हैं, कुछ सज्जनों के लिए कटु और कठोर गये हों, सच्चाई को छिपाये बिना उनको सरल तथा प्रिय बनाना संभव नहीं था। इतिहास और जीवनी लिखने का काम इसी से अप्रिय और अरुचिकर भी है।’ हमें लगता है कि पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। सभी स्वाध्यायशील पाठकों के पुस्तकालय में यह पुस्तक होनी चाहिये और सभी को इसका अध्ययन करना चाहिये।
लेखक ने भूमिका में आर्य जाति के महान पुरुषों के जीवन से प्रेरणा ग्रहण करने की बात को इन शब्दों में लिखा है ‘जिस समाज अथवा जाति में अपने वीरों की पूजा, उनकी स्मृति की रक्षा और भावी सन्तति के सामने उनके आदर्श उपस्थित करने का यत्न ही नहीं होता, वह किस बूते पर जीवति रहने की आशा रखता है? जीवन के लिए आवश्यक स्रोत को बन्द करके जीवित रहने की आशा रखना अथवा जीवन के लिए आवश्यक साधनों की खोज करना मृगतृष्णा के समान है। आर्यसमाज की इस समय कुछ ऐसी ही अवस्था है।’ हम समझते हैं कि इस जीवनी व ऐसे जीवन चरित्रों को पढ़कर व उनसे प्रेरणा लेकर आर्य जाति जीवित रह सकती है। इसी के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं।
ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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