मनुष्य सांसारिक दुःखों से सन्तप्त होकर सृष्टि के आदिकाल से परमशान्ति तथा शाश्वत सुख की खोज करता रहा है। सांसारिक भोगों के सुख क्षणिक तथा नश्वर होते हैं, उनमें शाश्वत-सुखों की आशा करना मरु-मरीचिकाओं में जल समझने के समान ही है। सांसारिक भोगों को भोगते-भोगते मानव समस्त जीवन बिता देता है, किन्तु परम सुख प्राप्त नहीं होता । महाराज भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि- भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः ॥ (भर्तृहरि०)
अर्थात् भोग भोगे नहीं जा सकते, हमें ही भोग खा जाते हैं । अर्थात् जीवन समाप्त हो जाता है कि भोग-कामनाओं की तृप्ति नहीं होती । मनु जी के शब्दों में भोगों को भोगने से
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्सव भूय एवाभिवर्धते ॥
कभी भी वासनाओं की शान्ति नहीं होती, प्रत्युत कामनाओं की वैसी ही वृद्धि होती है, जैसे घृतादि से अग्नि प्रचण्ड हो जाती है । धन-धान्यादि से सम्पन्न देश इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि उन देशों में भौतिक सुखों की न्यूनता न होते हुए भी सुख व शान्ति कहाँ ? उपनिषत्कार ने ठीक ही कहा है कि-
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः ।
अर्थात् मनुष्य सांसारिक धनों या पदार्थों से कभी तृप्त नहीं हो सकता । समस्त वैदिक दर्शनों का भी यही लक्ष्य रहा है कि शाश्वत-सुख (मोक्ष) कैसे उपलब्ध हो सके। संसार की प्राचीनतम पुस्तक ईश्वरीय ज्ञान वेदों में मोक्ष प्राप्ति या परम सुख का उपाय शुद्धान्त:करण करके धर्मानुष्ठान करते हुए परब्रह्म का जानना ही है। वेद में कहा है-
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।
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