अव्यक्तं वै यस्य योनिं वदन्ति व्यक्तं देहं कालमन्तर्गतं च । वहिं वक्त्रं चन्द्रसूयौं च नेत्रे दिशः श्रोत्रे घ्राणमाहुश्च वायुम्।। वाचो वेदांश्चान्तरिक्षं शरीरं क्षितिं पादौ तारका रोमकूपान्। सर्वाणि चाङ्गानि तथैव तानि विद्याश्च अङ्गाणि च यस्य पृष्ठम् ।। तं देवदेवं जननं जनानां सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठतं च । वरं वराणां वरदं महेश्वरं ब्रह्माणमादिं प्रयतो नमस्ये।।
( अव्यक्त जिनका उत्पत्ति-स्थल है, व्यक्ताव्यक्त काल ही जिनका शरीर है, अग्नि जिनका मुख, चन्द्र-सूर्य नेत्र, दिशाएँ जिनके कान, वायु नासिका, वेदसमूह वाणी, अन्तरिक्ष देह, पृथ्वी चरण, ताराएँ जिनकी रोमावलियाँ, समस्त दिशाएँ जिनके सम्पूर्ण अङ्गोपाङ्ग और समस्त वेदाङ्ग पृष्ठभाग है, उन देव- देवेश्वर, जनकों के भी जनक, सम्पूर्ण लोकों में व्याप्त तथा प्रतिष्ठित, वरप्रदाता परब्रह्म परमात्मा भगवान् महेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।
ब्रह्माण्डपुराण २।४।७१-७३)
पुराण-तत्त्व-विमर्श
पुराणों को भारतीय संस्कृति का विराट् कथात्मक कोश कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, परंतु इनका आधार वेद ही हैं। वेदों में जिन विषयों
को सूत्ररूप में कहा गया है, पुराणों में उन्हें व्याख्यायित किया गया है। उदाहरणतया यजुर्वेद (५/१५) के मन्त्र ‘इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा ६ सुरे स्वाहा।।’ में भगवान् विष्णु के वामन रूप धारण करके तीन पग में सम्पूर्ण पृथ्वी और आकाश को नाप लेने की बात कहीं गयी है; यह कथा विस्तारपूर्वक अनेक पुराणों में आयी है। इसी प्राकार तैत्तिरीय ब्राह्मण (१।१।३।६) में भगवान् के वराहावतार और पृथ्वी के उद्धार की कथा सूत्ररूप में है-स (प्रजापतिः) वै वराहो रूपं कृत्वा उपन्यमज्जत। स पृथ्वीमध आच्छेत्। तस्या उपहत्योदमज्जत्।’ यह कथा भी अनेक पुराणों में विस्तार के साथ प्राप्त होती है। इसीलिये पुराण और इतिहास को पाँचवें वेद की संज्ञा दी गयी है- ‘इतिहासपुराणाभ्यां पञ्चमो वेद उच्यते।’ साथ ही यह भी कहा गया है कि वेद के निगूढ अर्थों को इतिहास और पुराणों के द्वारा समझना चाहिये-‘इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।’
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