Vedrishi

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वेद के सम्बन्ध में क्या जानो क्या भूलो !

Ved ke Sambandh men Kya Jano kya Bhulo

200.00

Subject : Ved ke Sambandh men Kya Jano kya Bhulo
Edition : 2016
Publishing Year : 2016
SKU # : 37488-DY00-0H
ISBN : 9788170772934
Packing : Hardcover
Pages : 112
Dimensions : 14X22X6
Weight : 600
Binding : Hardcover
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भारत में अन्धविश्वास तो थे ही, किंतु वेद के अर्थ को विपरीत करने में उनके सामने जो सबसे बड़ा अन्धविश्वास खड़ा था, वह विकासवाद का अन्धविश्वास था। इस घोर अन्धविश्वास को पश्चिमीय विज्ञान तथा पश्चिम की कुटिल राजनीति दोनों का समर्थन प्राप्त था । पश्चिमी विकासवादी कहते थे, ‘प्राचीना आर्या मूर्खाः, प्राचीनत्वात्, अस्मदीय-प्राचीन-पुरुषवत्।’ इस हेत्वाभास-भरे अनुमान को देखकर हंसी भी आती थी और रोना भी । हँसी इसलिये आती थी मानो कोई किसी सती को कह रहा हो ‘सति पत्यौ त्वं विधवा, स्त्रीत्वात प्रतिवेशिनीवत्।

‘वेद में कितनी ही बुद्धिमत्तापूर्ण बात लिखी हो, किन्तु उसका अर्थ उलटा ही होना चाहिये, नहीं तो समझ लो कि वेद का पाठ विकृत हो गया है। वेद में बुद्धिपूर्वक बात हो ही नहीं सकती, क्योंकि मानव के वैदिक पूर्वज हमारी अपेक्षा बन्दर के अधिक समीप थे’ | यदि आप इस विकासवाद के अन्धविश्वास का । खेल देखना चाहें तो अथर्ववेद के इस मंत्र का सायण तथा ग्रिफिथ का अनुवाद देख लीजिये। मुग्धा देवा उत शुना यजन्तोत गोरङ्गैः पुरुधायजन्त। य इमं यज्ञं मनसा चिकेत प्र णो वोचस्तमिहेह ब्रवः ॥

(अथर्व० कां० ७, सू० ५, मंत्र ५) इसका सायणकृत भाष्य इस प्रकार है

एवं कर्मयज्ञात् ज्ञान-यज्ञस्योत्कर्ष श्रुत्वा कर्मयज्ञं निन्दन्नविनाशिफल-कामस्तटस्थो ब्रूते “मुग्धाः” कार्याकार्य-विवेक-रहिता (देवाः) यजमानाः (उत) शब्दोऽयमप्यर्थः, शुनाऽपि अयजन्त । यज्ञो हि पशु-साधनकः । तत्र अत्यन्त-गर्हितस्यापि शुनः पशुत्वेन निर्देशात् कर्मयज्ञस्य निन्दा दर्शिता । अखाद्यानां परमावधिः श्वा । तथा ‘उत’ शब्दः अप्यर्थे । (गोः) गोरूप-पशोरगैः अवयवैरपि।” हृदयस्याग्रेऽवद्यति” (तै० सं०६/३/१०/४) इति अङ्गावदानश्रवणाद् अङ्गरित्युक्तम् । अवध्यानां परमावधिर् गौः। पुरुधा बहुधा अयजन्त। एकदा करणे प्रमादाज्ञानादिकृतम् इति सम्भावना भवति, अतस्तन्निरासाय पुरुधेत्युक्तम् । सर्वदा शुनकगवादिरूपैः पशुभिः यज्ञ । कुर्वन्तीत्यर्थः । एवं पूर्वार्धेन कर्मयज्ञं निन्दित्वा उत्तरार्धेन ज्ञानयज्ञप्राप्तये तदभिज्ञ प्रार्थयते । यो विद्वान् इमं यज्ञ यष्टव्यं परमात्मानं मनसा चिकेत जानाति स्म । तं तथाविधं गुरुं नः अस्माकं प्रवोचः प्रकर्षेण ब्रूहि । तेन प्रदर्शित गुरुं ब्रूते । इहेह इहैव इदानीमेव ब्रवः परमात्मस्वरूपं ब्रूहि । –

मंत्र का यह भाष्य तो सायण का है, इसपर ग्रिफिथ का अनुवाद और टिप्पणी देखियेWith dog the Gods, perplexed, have paid oblation, and with cow’s limbs in sundry sacrifices, Invoke for us, in many a place declare him who with his mind hath noticed this our

worship. देवों ने परेशान होकर कुत्ते की भेंट अर्पित की और गऊ के अंगों के साथ छोटी भेटे दीं । अनेक स्थानों पर उसको हमारे लिए जगाओ जिसने हमारी इस भेंट-पूजा को देखा है।

With dog: no legend refering to this extraordinary sacrifice has survived. Perplexed : it ems imposible that mugdh’s (perplexed, infatuated) can be the right reading here. A substantive in the instrumental case is required by the context. M. Victor Henry reads murdhna, with the head, that is, with the horse’s given to Dadhyach, which, according to M. Beraigne (Religion, Vedique, 11 page 458) symbolizes Agni or soma.

इस प्रकार कुत्ते की यज्ञ-भेंट करनेवाली कोई दन्त-कथा हमें उपलब्ध नहीं होती, इस मंत्र में ‘मुग्धा’ का पाठ असम्भव प्रतीत होता है। प्रकरणानुसार यहां तृतीया विभक्ति होनी उचित प्रतीत होती है, इसलिये यहाँ ‘मुग्धा’: के स्थान पर ‘मूर्ना हो तो घोड़े का सिर दधीचि को भेंट में दिया जाना सम्भव हो सकता है। जो कि श्री मौशियर बर्गेन (Religion, Vedique, 11 page-458) पृ० ४५८ के अनुसार अग्नि और सोम का प्रतीक हो सकता है।

. यह देखिये, विकासवाद की करामात, क्योंकि ग्रिफिथ साहिब की विचारधारा से यह मंत्र मेल नहीं खाता, इसलिये मंत्र ही बदल डालना चाहिये।

सुनते हैं कि गवर्गण्ड के राज्य में एक मनुष्य को फाँसी हुई। फाँसी का फंदा उसके गले में पूरा नहीं आया, हुक्म हुआ कि जिसके गले में पूरा उतरे उसी को फाँसी टाँग दो। यही हाल यहां है। हमारे विकासवाद का फन्दा इस मंत्र के गले में पूरा नहीं उतरा तो बस, नया मंत्र बनाकर उसी को अथर्ववेद का मंत्र समझ लो। यह है विकासवाद का अन्धविश्वास ।

इस बात का आज के युग में इतना आतङ्क है कि इसके विरुद्ध कुछ बोलना उपहास को निमन्त्रण देना है, परन्तु हमारी समझ में नहीं आता कि इसमें जान क्या है।

– विकासवाद का मूलाधार है प्राणयात्रा-जन्य परिवर्तन । प्राण की रक्षा के लिए जिसे नंगे पाँव चलना पड़े उसके पैर का चमड़ा धीरे-धीरे मोटा तथा शीतोष्णादि-द्वन्द्व-सहन-समर्थ हो जाता है। जिसे नंगे पैर न चलना पड़े उसका चमड़ा नरम पड़ता जाता है, परन्तु यह नियम एक सीमा तक ही चलता है।

सींग, पूँछ, पँख आदि जो अंग मनुष्य के पास नहीं हैं, उन सब की उसे आवश्यकता है। यदि न होती तो नाना प्रकार के शस्त्र, नाना प्रकार के नौका, विमानादि तथा चामर और बिजली के पंखे आदि वह क्यों बनाता ? परन्तु आज तक उसके अंग क्यों प्रकट नहीं हुए ? जो जातियाँ सहस्रों वर्षों से नदी के किनारे रहती हैं और केवल मछली मारकर जीवन निर्वाह करती हैं, उनका सद्यो-जात शिशु तैरना क्यों नहीं जानता ? क्या करोड़ों वैज्ञानिक अन्धविश्वास-वश हम पर रौब डालने के लिए हाथ उठाकर चिंघाड़ चिंघाड़ कर कहेंगे कि उन्हें तैरने की आवश्यकता नहीं रही, इसलिये वे तैरना भूल गये, तो भी इस बात पर अन्ध-श्रद्धा के सिवाय किसी दूसरे आधार पर विश्वास किया जा सकता है ? कदापि नहीं। दूसरी ओर जो भैंस सहस्रों वर्षों से राजपूताने में रहती है, जिसे कभी डूबने योग्य पानी में तैरने का अवसर वर्षों में एक आध बार आता होगा। उसका सद्यो-जात शिशु पानी में घुसते ही क्यों तैरने लगता है ? मानव-जगत् तथा मानवेतर-जगत् का यह पर्वताकार भेद आंखों से कैसे परे किया जा सकता है ? इसे आंखों से परे करने का एक ही उपाय है। विकासवादियों के भय के मारे आंखें बन्द करलें । बस, –
फिर तो अन्धकार के सिवाय कुछ नहीं, परन्तु जबतक मस्तिष्क में तर्क की एक चिनगारी भी शेष है, कोई आँखें कैसे मूंद ले?

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