पुस्तक का नाम – वैदिक वाङ्मय में पाप – पुण्य विमर्श
लेखक का नाम – डॉ. जितेन्द्र कुमार
संसार में अनेकों प्राणियों में से मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो पाप पुण्य से समाज में प्रतिबन्धित है। यह पाप – पुण्यात्मक स्थिति मनुष्य की किन्हीं न किन्हीं रूपों में आदिम अवस्था से आज तक चली आ रही है।
वैदिक वाङ्मयों में श्रुति और स्मृतियों में पाप और पुण्य विषय पर अनेकों उपदेशों के सङ्कलन हैं। इन दोनों में से श्रुति को प्रमुख और स्वतः प्रमाण माना गया है। यदि किसी स्थल पर श्रुति और स्मृति में विरोध हो तो वहां श्रुति को ही प्रामाणिक माना गया है – “श्रुति स्मृति विरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी” क्योंकि स्मृतियाँ श्रुति का ही अनुगमन करती हैं। इसीलिये कहा भी गया है – “श्रुतिरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्”। समूचा वैदिक साहित्य जिसके अन्तर्गत शाखायें, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, वेदांग और उपांग आदि आते हैं, ये सभी वेदों के सिद्धान्तों को ही समझाने के लिये रचे गये हैं।
अतः पाप और पुण्य के विषय में वेद और वेद से सम्बन्धित ये सभी स्मृतियाँ निर्णायक हैं। इस विषय का सम्बन्ध केवल हमारी संस्कृति से ही सम्बद्धित नहीं है अपितु इसकी व्यापकता सर्वत्र समाज में दृष्टिगत होती है क्योंकि मनुष्य अन्य प्राणियों की अपेक्षा मर्यादा में सर्वाधिक परतन्त्र है इसीलिये मात्र मनुष्य को ही सामाजिक प्राणी कहा जाता है। इस धारणा का सम्बन्ध जितना समाज शास्त्र से है उतना ही भूगोल शास्त्र से है क्योंकि यह समाज इस भूगोल पर ही प्रतिष्ठित है। अतः यह पाप-पुण्यात्मक मर्यादा सर्वत्र ही पालनीय है जिससे प्रकृति का अनुशासित दोहन हो न कि व्यर्थ उपभोग हो।
पाप–पुण्य पर शास्त्रोक्त विचारों को प्रस्तुत करने के लिये ही प्रस्तुत पुस्तक “वैदिक वाङ्मय मेंपाप – पुण्य विमर्श” डॉ. जितेन्द्र कुमार जी द्वारा लिखी गई है। इस पुस्तक के अध्ययन से मानव मात्र की पाप – पुण्य विषयक उत्सुकता को प्रामाणिक आधार मिलेगा क्योंकि मनुष्य को सदैव यह जिज्ञासा रहती है कि जो कर्म हमारे द्वारा किया जा रहा है वह सामाजिक होने के साथ ही क्या शास्त्रोक्त भी है अथवा नहीं? इसके विषय में वैदिक साहित्य का क्या कहना है? अर्थात् प्रत्येक मनुष्य कर्म करते हुए यह चाहता है कि मेरा कर्म अच्छा हो और अच्छा ही माना जाये, परन्तु जब समाज से हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है, तो समाज भी शास्त्र की शरण में जाता है। अतः प्रस्तुत पुस्तक का शास्त्रीय दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्व है।
इस पुस्तक के अध्ययन से पाप – पुण्य के विषय में मिथ्या धारणाओं जैसे कि किसी वस्तु के स्पर्श मात्र से, किसी नाम के जाप से और गंगादि स्नान मात्र से पाप धुलने जैसी अनेकों धारणाओं के निराकरण होने में सहायता मिलेगी तथा यह भी ज्ञान मिलेगा कि किन बातों सेपाप का परिमार्जन अथवा परिष्कार या परिहार हो सकता है अथवा नहीं? पाप का क्या कोई प्रायश्चित और पश्चात्ताप भी सम्भव है? इन सब विषयों में शास्त्र की क्या और किस प्रकार की मान्यता है? इन सब विषयों को जानने के लिये प्रस्तुत पुस्तक अत्यन्त उपादेय है। इस पुस्तक में पाप – पुण्य विषय पर वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, स्मृतियाँ, धर्मसूत्रों आदि ग्रन्थों से विचारों को प्रस्तुत किया गया हैं।
आशा है कि प्रस्तुत पुस्तक के अध्ययन से धर्मप्रेमी जन अत्यन्त लाभान्वित होंगे।
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