ग्रन्थ का नाम – वेदोपज्ञा निर्वचनाविद्या
लेखक का नाम – रूपकिशोर शास्त्री
ऋग्. – यजु. – साम. – अथर्ववेद नाम से विख्यात चारों वेद संहिताएँ विश्व एवं मानव सृष्टि के प्राचीनतम ग्रन्थ एवं गहनतम ज्ञानागार रहीं हैं। ऋषि – देवता – छन्दनिर्देशपुरस्सर समस्त ऋचाएँ सर्गारम्भ में प्रभु – प्रेरणास्वरूप साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों के हृदय में आविर्भूत हुई थीं। नियतवाचो युक्तयों नियतानुपूर्व्या भवन्ति द्वारा वेद की आनुपूर्वी को महर्षि यास्क ने नित्य माना है। यही ज्ञान शाश्वत रहा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ वेदोपज्ञा निर्वचनविद्या में चारों वेद संहिताओं के निर्वचन – विद्यापरक ऋचाओं का अन्वेषण कर उन पर गम्भीरता पूर्वक यह विचार किया गया है कि ब्राह्मण वाङ्मय, निरूक्तशास्त्र एवं यास्क प्राक् नैरूक्तों के मन्तव्यों, सिद्धान्तों एवं अनुपलब्ध निरूक्तों का मुख्य आश्रय ये ही चारों संहिताएँ रही हैं। वस्तुतः वेदों में नित्यशः निबद्ध निर्वचनविद्या से नैसर्गिक ज्ञान का विस्तार एवं विकास परवर्ती वाङ्मय अर्थात् ब्राह्मण – आरण्यक – उपनिषद् – निरूक्तशास्त्रादि ग्रन्थों में प्रभूत मात्रा में विद्यमान है।
इसी निर्वचनविद्या की नित्य मौलिकता एवं उत्स ग्रन्थ में शोधपरक विस्तृत मीमांसा की गई है। वेदार्थबोध अथवा वेदार्थ के उद्घाटन के लिए यह निर्वचनविद्या प्राचीनकाल से ही आर्ष पद्धति रही है, इसके मूल का अलौकिक दृष्टिस्वरूप गहन बोध साक्षात्कृत, असाक्षात्कृतधर्मा ऋषियों, मनीषियों एवं आचार्यों के हृदय में था, जिसकी मूल शेवधि बीज रूप में अथवा विशद् रूप में निहित है, यही परवर्ती वैदिक वाङ्मय में विकसित एवं विस्तृत निर्वचनविद्या के ज्ञान की उपज्ञा है, आदिमूल है, यही है उक्त वेदोपज्ञा निर्वचनविद्या नामक ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय।
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