जीवन परम सत्ता के द्वारा उपहार में दिया गया अनुपम वरदान है। अस्तित्व हमारी समस्त इच्छाओं की पूर्ति के निमित्त इस अवसर को उपलब्ध कराता है। जब-जब जीवात्मा जिस-जिस की कामना करता है, तब-तब वह सब कुछ उसे उसी रूप में देने के लिये तत्पर रहता है। अपूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये अवसर उपलब्ध कराने का नाम जन्म है और जन्म के साथ ही जीवन की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। जब हम एक प्रकार की इच्छा की पूर्ति होने के बाद दूसरी इच्छाएँ देखने लगते हैं कि काश! हमारी यह भी इच्छा भी पूर्ण हो जाए, अस्तित्व उसको उसी रूप में उपलब्ध करा देता है। एक के बाद दूसरा और फिर तीसरा इस प्रकार अनन्त जन्मों की शृंखला चलती रहती है। एक समय ऐसा भी आता है कि जब हम और कुछ नहीं देखना चाहते, लगता है कि अब नया कुछ देखने के लिये शेष नहीं रहा अर्थात् अब कोई चाह नहीं रही, तब यह जन्म-मरण का चक्र अवरुद्ध हो जाता है। लेकिन जब तक चाह है, माँग है, तब तक निरन्तर यह जन्म-मरण का चक्र निर्बाध और निरन्तर गतिमान रहता है। इच्छारूपी रथ के ये दोनों पहिये हैं, इन्हीं के माध्यम से अस्तित्व अपूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करता है।
काश! अस्तित्व ने इस जन्म और मृत्यु के खेल में इच्छा को न रक्खा होता तो यह क्रीडा बहुत देर तक नहीं चल पाती। इस खेल का सारा सौन्दर्य इच्छा और उससे बनने वाली वासनाओं के इन्द्रजाल में निहित है। जिस प्रकार एक बालक खिलौनों के प्रति आकर्षित होता है तो वही खिलौने उसे आनन्द की अनुभूति कराते हैं और जब वह उनसे विरक्त हो जाता है, तब क्रीडा के वही साधन अपना अर्थ खो देते हैं। वस्तुतः, खिलौने में न आनन्द है और न दुःख। यह स्थिति उस बालक के मन पर निर्भर करती है कि कब उसे वे अच्छे लगते हैं और कब निरर्थक।
जहाँ तक दर्शनशास्त्र का प्रश्न है, वह बालक की उदासीन स्थिति में बैठकर लिखा गया शास्त्र है, उसमें जीवन का स्पदन कहीं खो गया लगता है। उसमें जीवन का वह सौन्दर्य जो अस्तित्व ने उपहार में दिया है, उसके प्रति अनाकर्षण का भाव अधिक है। तटस्थ होकर किसी वस्तु का मूल्यांकन उसमें होता हुआ कम दिखायी देता है। वास्तविकता यह है कि यह सारा संसार क्रीडास्थली है और जो उसमें खेल की भावना से खेलकर पार हो जाते हैं, उनके लिये जन्म-मरण का चक्र अस्तित्वहीन हो जाता है। यह संसार रस लेकर, उसमें डूबकर, जय-पराजय की भावना से ऊपर उठकर खेलने के लिये दिया गया है। परन्तु भारतीय दर्शनशास्त्र की रसहीन और उदासीन भावना से न खेल का आनन्द आ सकता है और न जन्म- मरण के चक्र को ही समझा जा सकता है।
आचार्य पतञ्जलि का योगशास्त्र दर्शनशास्त्र की इस परम्परा से हटकर है, वह व्यक्ति के सामने अपनी कोई दृष्टि प्रक्षेपित नहीं करता, वह मात्र प्रयोग करना सिखाता है कि चित्तवृत्ति निरोध करके संसार के सत्य को देखो और देखकर स्वयं निर्णय करो कि सत्य और असत्य क्या है? इस क्रम में वे चित्त को निर्मल करने के लिये अनेक उपाय बताते हैं, क्योंकि जब तक चित्त निर्मल न हो, मनःस्थिति शान्त न हो, जीवन की बात तो बहुत दूर की है, व्यक्ति किसी वस्तु का सही मूल्यांकन नहीं कर सकता। अशान्त चित्त में लिये गये निर्णय व्यक्ति को बहुत दूर तक नहीं ले जा सकते।
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