अनेक विद्वानों और स्वाध्यायशील सज्जनों ने अनेक बार मुझ से कहा कि “आपने क्रियात्मक रूप से लम्बे काल पर्यन्त योगाभ्यास किया है और योगाभ्यास से होने वाले उत्तम परिणामों का अनुभव भी किया है। अतः आपको योगदर्शन पर अपने विचार अवश्य लिखने चाहियें, इससे अनेक लोग लाभान्वित होंगे ।” उनकी इन बातों को सुनकर योगदर्शन पर कुछ लिखने की मेरी इच्छा होती थी । परन्तु अनेक कारणों से इस कार्य को मैंने प्रारम्भ नहीं किया । कालान्तर में इस विषय पर विचार किया कि इस कार्य के करने से संसार का उपकार होगा, अतः इसको करना ही चाहिये । ऐसा विचार करके मैंने यह ग्रन्थ लिखा और योगदर्शन पर किये गये अपने भाष्य का नाम ‘योगार्थ प्रकाश’ रखा है।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि योगदर्शन पर अनेक विद्वानों ने विविध भाषाओं में व्याख्याएँ की हैं। उन व्याख्याओं की विद्यमानता में इस भाष्य की क्या आवश्यकता थी ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि योगाभ्यास विषयक मेरे जो लगभग पचास वर्षों के अनुभव हैं, उन अनुभवों को भी मैंने यत्र-तत्र लिखने का प्रयास किया है। विशेषकर तृतीय पाद के तीसरे सूत्र के भाष्य में योग विषयक अपनी कुछ अनुभूतियों का भी वर्णन किया है इसके अतिरिक्त किया गया है जैसे कि इस भाष्य में अनेक बातों का स्पष्टीकरण –
(१) इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय ईश्वर करता है जीवात्माएँ नहीं कर सकतीं । सृष्टि की उत्पत्ति स्वयं नहीं हो सकती । यह स्वरूप से अनादि भी नहीं है । (२) चाहे कोई कितना भी सिद्ध योगी क्यों न हो, वह ईश्वरवत् सर्वज्ञ नहीं हो सकता और न ही वह सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर सकता है।
(३) योगदर्शन में वर्णित सिद्धियों पर विचार करके अपना मन्तव्य दिया है कि किस सिद्धि को मानना, किसको न मानना अथवा किस रूप में मानना और कितने अंश में मानना चाहिये ।
(४) योगदर्शन के सूक्ष्म विषयों को सरल भाषा में समझाने का प्रयास (५) योगाभ्यासी ईश्वर साक्षात्कार तक कैसे पहुंचे तथा योग का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसको क्रिया रूप में समझाने का प्रयत्न किया है ।
(६) ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को बतलाने और ईश्वर प्राप्ति करने के लिये अधिक बल दिया गया है ।
(७) इसमें व्यासभाष्य के अनुवाद के साथ साथ सम्पूर्ण भाष्य की विशेष व्याख्या न करते हुवे जिस अंश को स्पष्ट करना आवश्यक समझा है, उसको स्पष्ट किया है तथा जिस अंश को प्रक्षिप्त समझा है, उसे ‘प्रक्षिप्त’ नाम से लिखा है ।
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