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वराहपुराणम्

Varaha Puranam

1,375.00

SKU N/A Category puneet.trehan
Subject : Varaha Puranam
Edition : 2014
Publishing Year : 2021
SKU # : #N/A
ISBN : 9788121803489
Packing : HARDCOVER
Pages : 1371
Dimensions : 10.00 X 7.50 INCH
Weight : 2320
Binding : HARDCOVER
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अब वैदिक धर्म के तृतीय उपासना मार्ग की चर्चा करते हैं। इस उपासना का आश्रयण करने में ईश्वरोपासना हो प्रधान माना गया है। यहाँ ईश्वर का ही महत्व है। जिस प्रकार नारद भक्ति सूत्र में बतलाया गया है कि सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽत्यधिकतरा’ अर्थात् उपासना कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और योगमार्ग से भी श्रेष्ठ कहा गया है। इस उपासना का आश्रय ग्रहण करने वाले सामान्य जन भी इससे ‘मोक्ष’ आदि जैसे फलों को सहज ही गप्त कर लेता है।

इस उपासना मार्ग में शंकर, विष्णु, गणेश, दुर्गा आदि आदि देवताओं की उपासना करने के लिए कहा गया है। जो उपासकों हेतु निक्षय ही अभीष्ट की सिद्धि प्रदान करने वाले होते हैं। इस उपासना मार्ग का मुख्य प्रतिपादक अन्य अष्टादश पुराणों को ही माना गया है।

इस प्रकार सनातन वैदिक धर्म का आश्रयण करने वाले सामान्य जन स्वेच्छा से उपरोक्त तीनों मागों में से किसी एक को या दो को या तीनों को अपना कर जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास कर सकता है। चूंकि उपरोक्त कर्म, ज्ञान और उपासना मार्ग निश्चय ही एक-दूसरे का पूरक या सहायक ही है। इनमें परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होने से किसी भी प्रकार से विरोधाभास का सामना नहीं करना पड़ता है।

अतः कहा जा सकता है कि कर्म मार्ग का आश्रयण करने वाला जन ज्ञान भाग के साथ उपासना भाग का भी सुखपूर्वक आश्रयण कर सकता है, क्योंकि श्रीभास्करराय आदि महान् उपासकों ने भी सोमयाग जैसे महान् महान् यज्ञ सम्पत्र करने में सफल हुए।

कर्म, ज्ञान और उपासना में से आप जो कोई मार्ग अपनायें, कोई चिन्ता नहीं। प्रत्येक मार्ग का आश्रयण करने वाला अन्य मार्ग के आश्रयण करने वाले का सम्मान ही किया करते हैं। इसका उदाहरण यह हो सकता है कि महान् तान्त्रिक भास्कर राय उपासना मार्ग के आचार्य थे। उनके द्वारा विरचित नित्यषोडशिकार्णव तन्त्र’, ‘वरिवस्या रहस्य’ आदि तन्वशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्य है।

फिर आद्यशंकराचार्य ज्ञानमार्ग के महान् आचार्य होकर भी वे श्रिपुरसुन्दरी और शंकर के परमोपासक भी माने जाते हैं। जो उनके द्वारा विरचित ‘सौन्दर्यलहरी’ आदि स्तोत्र अन्य के अध्ययन करने से सिद्ध हो जाता है। अतः कहना चाहिए कि वैदिक धर्म के उपरोक्त तीनों मार्ग पुराणों से होकर सामान्य जन को जीवन लक्ष्य की ओर आकृष्ट करते हुए अन्ततः ‘मोक्ष’ तक की यात्रा को सहज व सरल बनाकर उनके समक्ष प्रस्तुत करते हैं।

पुराणों की दृष्टि में सृष्टिक्रम

सृष्टिक्रम या उसकी उत्पत्ति का रहस्य प्रत्येक चिन्तनशील जन्मात निशा प्राणी के मन में समुत्कण्ठा उत्पत्र करता रहा है। इस जगत् में विद्यमान पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र कोटि-कोटि जीव-जन्तुओं को प्रजातियाँ, सुख व दुःख, जीवन-मरणादि सभी कुछ अनादिकाल से आकर्षण और विचार का विषय रहा है।

यही कारण है कि जहाँ वैदिक ऋषियों ने गहन चिन्तन मनन का परिचय प्रस्तुत करते हुए एतत् सम्बन्धी अपने निष्कर्षात्मक आधार को वेदोक्त नासदीय सूल ( १०-१२९), पुरुष-सूल (१०९०) वा-मूल (१०.१२५). प्रजापति-मुक्त (१० १२१), अघमर्षण-सूक्त (१०७२) के माध्यम से परिपुष्ट ही किये हैं, वहीं अनेक मन्त्रों, ब्राह्मण अन्यों एवं उपनिषद् वाक्यों में सृष्टि की उत्पति स्थिति, लय तथा प्राक-सृष्टि सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत किया गया है।

आदिकाल से ही भारतीय जनमानस पुराण को वेद की भाँति परमात्मा के निःश्वास भूत होने से अपौरुषेय मानकर उसके सम्मुख श्रद्धावनत रहने में गौरव की अनुभूति करता आ रहा है। इसीलिए भारतीय वाड्मय में पुराणों को व्यापकता और उसकी महत्ता का गान भी अपरिमित एवं असन्दिग्ध रूप से निरन्तर होता आ रहा है। इस प्रकार पुराण भारत के अतीतकालीन धर्म और संस्कृति के मूर्तिमान् गौरव के प्रतीक स्वरूप में सदा प्रतिष्ठापित रहा है। जिस कारण आज के बौद्धिक वर्ग भी पुराणों के प्रभाव और उनके महत्त्व को रखना भी उपेक्षित नहीं कर पाये है। अतएव इस समय भी उन पुराणों के प्रति पूर्ववत् श्रद्धा और सम्मान का भाव यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है, जिस प्रकार सुदूर अतीत काल में रहा था।

चूंकि परमात्मा के निःश्वासभूत अपौरुषेय वेदों में भी पुराणों की चर्चा उपलब्ध होती है, अतः उनको वेदों के

समान नित्य और प्रमाणस्वरूप बतलाया गया है। इस प्रसङ्ग में पुराण पाठ करने के उद्देश्य से अध्वर्यु यज्ञ के समय इस प्रकार प्रेरित करते हुए कहा गया है कि पुराण वेद है, वही यह वेद है। यथा-

तानुपदिशति पुराणम्। वेदः सोऽयमिति । किश्चित् पुराणमाचक्षीत। एवमेवाध्वर्युः सम्प्रेषितः………।।

शतपथ ब्राह्मण, १३/४/११३

फिर वहीं अथर्ववेद, बृहदारण्यकोपनिषद् आदि वैदिक साहित्यों में भी पुराणों के लिए अत्यन्त उच्चस्तरीय भावना व्यक्त की गई है।

इसी तरह पुराण की प्रशंसा और महत्ता को अभिव्यक्त करने हेतु व्यास ने महाभारत के प्रसङ्ग में कहा है कि- “यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्।”

महाभारत, आदि पर्व, ५६.३३

पुराणों के विषय में ध्यास ने तो यहाँ तक कह दिया कि जो वेदों में नहीं देखा गया, जो स्मृतियों में भी नहीं देखा गया तथा जो दोनों में नहीं देखा गया, वे सब भी पुराणों में सत्रिहित है। यथा-

यन्न दृष्टं हि वेदेषु न दृष्टं स्मृतिषु द्विजाः। उभयोर्यन्त्र दृष्टं च तत्पुराणेषु गीयते।।

स्कन्द पुराण, ७-१-२-३२

पुराण को प्रशंसा करते हुए व्यास ने मत्स्यपुराण में उसे आदि शास्त्र कहा है। यथा- “पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्।”

चूंकि इस बात से समस्त विद्वान् प्रायः सहमत हो है कि श्रुति, स्मृति और पुराण, ये तीनों वैदिक सनातन धर्म के शाश्वत आधारस्तम्भ है, जिनमें हुति की प्रधानता है। अतः श्रुतिमूलक होने से स्मृति और पुराण को प्रमाणिकता भी निरन्तर रूप से आज भी सिद्ध होती है।

Dimensions 9507.50 cm

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